स्वस्थ रहें या रोगी-फैसला स्वयं करें?

आज हमारी समस्त सोच का आधार भीड़ और विज्ञापन के साथ, जो प्रत्यक्ष हैं, जो तात्कालिक है, उसके आगे-पीछे प्रायः नहीं जाता। स्वस्थ रहने के लिए हमें रोग के मूल कारणों को दूर करना होगा। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण होने से बचाना होगा। रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए सृष्टि के नियमों का पालन कर संयमित जीवन जीना होगा। जहाँ संयम है, सजगता है, समता है, स्वावलम्बन है, सम्यक् श्रम है, साधना है वहाँ विकारों का अभाव होता है। यही अच्छे स्वास्थ्य का द्योतक होता है। दुष्प्रभावों की चिन्ता छोड़ प्रभावशाली स्वावलंबी उपलब्ध साधनों की अनदेखी करने से, जीवन भर हम अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं ले पाते। अपने स्वजन और मित्रों को साधारण से रोग की अवस्था में भी अपनी मानसिकता के कारण अस्पताल ले जाना अपना कर्तव्य समझते हैं और जो ऐसा नहीं करते उन्हें हम मूर्ख, कंजूस, लापरवाह कहते हुए नहीं चूकते। इसके विपरीत रोग होने के कारणों की तरफ पूरा ध्यान नहीं देते।

ये बातें वर्तमान में हमारी धारणाओं और परिस्थितियों के अनुकूल हो अथवा नहीं, ये बातें हमें अच्छी लगें अथवा नहीं, प्रकृति के कानून व्यक्तिगत अनुकूलताओं के आधार पर नहीं बदलते। जानवर आज भी बिना तर्क प्राकृतिक नियमों का पालन करते हैं। अतः उनको अपना जीवन चलाने के लिए प्रायः डाँक्टरों  और दवाइयों की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु जो पशु मानव के सम्पर्क में आते हैं, उनके सम्पर्क में रहकर अपना नियमित आचरण बदल प्रकृति के विपरीत आचरण करते हैं, वे ही मानव की भाँति रोगग्रस्त होते हैं। अतः प्रकृति से सहयोग और तालमेल रख जीवन व्यापन ही स्वास्थ्य की कुँजी है। जितना-जितना प्रकृति के साथ तालमेल और सन्तुलन होगा, प्राणि मात्र के प्रति सद्भाव, मैत्री, करूणा, सहयोग का आचरण होगा, उतना-उतना हम स्वास्थ्य के समीप होंगे। हमारा स्वास्थ्य हमारे हाथ में है तो हमारे रोग भी हमारे हाथ में हैं। हम जैसा चाहें, वैसा आचरण करें, हमें स्वयं को ही फैसला करना है कि ‘‘हम रोगी बने अथवा स्वस्थ।’’

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उपचार के प्रति सच्ची सोच आवश्यक

स्वास्थ्य के संबंध में आज हमारी समस्त सोच का आधार जो प्रत्यक्ष हैं, जो तात्कालिक है, उसके आगे-पीछे प्रायः नहीं जाता। स्वस्थ रहने के लिए हमें रोग के होने के मूल कारणों को दूर करना होगा। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण होने से बचाना होगा। जहां संयम है, सजगता है, समता है, स्वावलम्बन है, सम्यक् श्रम है, साधना है वहाँ विकारों का अभाव होता है। यही अच्छे स्वास्थ्य का द्योतक होता है। दुष्प्रभावों की चिन्ता छोड़ प्रभावशाली वैकल्पिक उपलब्ध साधनों की अनदेखी करने से, जीवन भर हम अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं ले पाते। अपने स्वजन और मित्रों को साधारण से रोग की अवस्था में भी अपनी मानसिकता के कारण अस्पताल ले जाना अपना कत्र्तव्य समझते हैं और जो ऐसा नहीं करते उन्हें हम मूर्ख, कंजूस, लापरवाह कहते हुए नहीं चूकते। इसके विपरीत रोग होने के कारणों की तरफ पूरा ध्यान नहीं देते।

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अच्छी चिकित्सा कौनसी?

अच्छी चिकित्सा पद्धति शरीर को आरोग्य ही नहीं, निरोग रखती है। अर्थात जिससे शरीर में रोग उत्पन्न ही न हो। रोग होने का कारण आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग), उपाधि (कर्मजन्य) विकार होते हैं। अतः अच्छी चिकित्सा तीनों प्रकार के विकारों को समाप्त कर समाधि दिलाने वाली होती है। अच्छी चिकित्त्सा पद्धति के लिए आवश्यक होता है- रोग के मूल कारणों का सही निदान, स्थायी एवं प्रभावशाली उपचार। इसके साथ-साथ जिस पद्धति में रोग का प्रारम्भिक अवस्था में ही निदान हो सके तथा जो रोगों को रोकने में सक्षम हो। जो पद्धति सहज हो, सरल हो, सस्ती हो, स्वावलम्बी हो, दुष्प्रभावों से रहित हो, पूर्ण अहिंसक हो तथा जिसमें रोगों की पुनरावृति न हो। जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ करने के साथ-साथ मनोबल ओर आत्मबल बढ़ाती हो तथा जो सभी के लिए, सभी स्थानों पर सभी समय उपलब्ध हो। अच्छी चिकित्सा पद्धति के तो प्रमुख मापदण्ड यहीं होते हैं। जो चिकित्सा पद्धतियाँ इन मूल सनातन सिद्धान्तों की जितनी पालना करती हैं, वे उतनी ही अच्छी चिकित्सा पद्धतियाँ होती हैं। अच्छी चिकित्सा का मापदण्ड भीड़ अथवा विज्ञापन नहीं होता अपितु अन्तिम परिणाम होता है। मात्र रोग में राहत ही नहीं, स्थायी उपचार होता है। दवाओं की दासता से मुक्ति होती है।

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क्या अंग्रेजी चिकित्सा ही प्रभावशाली है, अन्य चिकित्सायें नहीं?

प्रायः ऐसा प्रचारित किया जाता है कि आधुनिक समझी जाने वाली ऐलोपैथी चिकित्सा अत्यधिक प्रभावशाली है। क्या ऐसा कथन सत्य पर आधारित है? अगर यह चिकित्सा प्रभावशाली होती तो दवा लेते ही उपचार हो जाता। रोगियों को लम्बे समय तक अस्पतालों और डाँक्टरों के चक्कर नहीं काटने पड़ते। बहुत से रोगों में जिन्दगी भर दवायें खाने की आवश्यकता नहीं होती। अंग्रेजी चिकित्सा तो रोगों में राहत पहुँचाती है, दुष्प्रभाव अधिक होते हैं, उपचार गौण होते हैं। यह चिकित्सा पद्धति अहिंसा की उपेक्षा करती है। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमतायें घटाती है। इसी कारण डाँक्टरों और अस्पतालों की संख्या बढ़ने के बावजूद रोगियों की संख्या में बहुत ज्यादा वृद्धि हो रही है। नित्य नये रोग उत्पन्न हो रहे हैं। राहत उपचार का महत्वपूर्ण भाग हो सकता है, परन्तु राहत को ही उपचार मानने से उपचार कैसे प्रभावशाली समझा जा सकता है?

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स्वास्थ्य हेतु प्राकृतिक नियमों का पालन आवश्यक

प्रकृति के कानून व्यक्तिगत अनुकूलताओं के आधार पर नहीं बदलते। जानवर आज भी बिना तर्क प्राकृतिक नियमों का पालन करते हैं। अतः उनको अपना जीवन चलाने के लिए प्रायः डाँक्टरों और दवाइयों की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु जो पशु मानव के सम्पर्क में आते हैं, उनके सम्पर्क में रहकर अपना नियमित आचारण बदल प्रकृति के विपरीत आचरण करते हैं, वे ही मानव की भाँति रोगग्रस्त होते हैं। अतः प्रकृति से सहयोग और तालमेल रख जीवन यापन ही स्वास्थ्य की कुंजी है। जितना-जितना प्रकृति के साथ तालमेल और सन्तुलन होगा, प्राणि मात्र के प्रति सद्भाव, मैत्री, करूणा, सहयोग का आचरण होगा, उतना-उतना हम स्वास्थ्य के समीप होंगे। हमारा स्वास्थ्य हमारे हाथ में है तो हमारे रोग भी हमारे हाथ में है। हम जैसा चाहें, वैसा आचरण करें, हमें स्वयं को ही फैसला करना है कि ‘‘हम रोगी बने अथवा स्वस्थ।’’

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शाकाहार ही मानवीय आहार है

बुद्धिमान कौन? 

मांसाहार स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक, आर्थिक दृष्टि से महंगा, आध्यात्मिक दृष्टि से नीच गति में ले जाने वाला, मानवीय गुणों का नाश करने वाला, पर्यावरण की दृष्टि से प्रकृति में असंतुलन पैदा करने वाला तथा न्याय की दृष्टि से अन्याय का पोषण करने वाला हैं।
अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने वाला या उपेक्षा करने वाला? अपनी क्षमताओं का सदुपयोग करने वाला अथवा दुरुपयोग करने वाला? दयालु या क्रूर, स्वार्थी अथवा परमार्थी? अहिंसक अथवा हिंसक, अन्य प्राणियों के प्रति मैत्री और प्रेम का आचरण करने वाला या द्वेष और घृणा फैलाने वाला? जीओ और जीने दो के सिद्धान्तों को मानने वाला या दूसरों को स्वार्थ हेतु कष्ट देने वाला, सताने वाला या नष्ट करने वाला? उपर्युक्त मापदण्डों के आधार पर ही मनुष्य को सभ्य, सजग, सदाचारी और बुद्धिमान अथवा असभ्य, असजग, दुराचारी और मूर्ख समझा जाता है। अपने-अपने खाने की आदतों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि हमारा खान-पान कितना बुद्धिमत्ता पूर्ण हैं?
जो मांसाहार करते हैं, करवाते हैं अथवा करने वालों को अच्छा समझते हैं, वे सभी असजग हैं। असंस्कारित है। अमानवीय हैं। अपनी रसनेन्द्रिय के गुलाम हैं। भ्रमित हैं। स्वयं के प्रति भी पूर्ण रूप से ईमानदार नहीं हैं। वास्तव में जो बुराई को जानते, मानते हुए भी न स्वीकारें अपितु आचरण कर प्रसन्न होंवे, उस व्यक्ति, समाज और सरकार को कैसे बुद्धिमान समझा जायें?

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पशओं के प्रति क्रूरता न्याय संगत नहीं

अगर कोई मनुष्य को खा जाता है तो उसको नरभक्षी कहा जाता है। ऐसे जानवरों को लोग जिंदा नहीं रहने देते। परन्तु मांसाहारी जीवन-पर्यन्त कितने प्राणियों की हत्या कर खाता है, फिर भी ऐसे मानव को सभ्य, बुद्धिमान, सजग, नैतिक मानना क्या न्यायसंगत है?

मत सता जालिम किसी को, मत किसी की हाय ले।
दिल के दुःख जाने से जालिम, खाक में मिल जाएगा।।

मांसाहार स्वास्थ्य की दृष्टि से रोगों को आमंत्रित करने वाला, मानसिक दृष्टि से व्यक्ति को क्रूर, निर्दयी, विवेक शून्य बना दया, करूणा, अनुकंपा जैसे मानवीय गुणों को नष्ट करने वाला, आध्यात्मिक दृष्टि से नीच गति में ले जाने वाला, आर्थिक दृष्टि से महंगा, पर्यावरण की दृष्टि से प्रकृति में असंतुलन पैदा करने वाला, न्याय की दृष्टि से अन्याय एवं अत्याचार का पोषण करने वाला आहार है।
अर्थात् मांसाहार अप्राकृतिक है, असात्त्विक है, अमानवीय है, असांस्कृतिक है, असामाजिक है, असंवैधानिक है, अवैज्ञानिक है, अनैतिक है, अनावश्यक है। अतः मानवीय आहार कैसे हो सकता है?

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रोग क्यों?

अज्ञान सभी दुःखों का मूल है। स्वास्थ्य संबंधी सामान्य प्राकृतिक सनातन नियमों का ज्ञान न होना और उसके विपरीत आचरण करना, अधिकांश रोगों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण होता है। प्रकृति किसी भी ज्ञानी या अज्ञानी को नियम विरूद्ध कार्य करने के लिए क्षमा नहीं करती। वहाँ अज्ञानता का कोई बहाना नहीं चलता। अग्नि, अग्नि को स्पर्श करने वाले को जलायेगी। यह उसका स्वभाव है।
रोग होने के अनेक कारण होते हैं। जैसे पूर्व अथवा इस जन्म के संचित असाता वेदनीय कर्मों का उदय, पैतृक संस्कार और वंशानुगत रोग, आकस्मिक दुर्घटनाएँ, आस-पास का बाह्य प्रदूषित वातावरण, मौसम का परिवर्तन एवं उसके प्रतिकूल आचरण, तनाव पैदा करने वाली पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, अनावश्यक सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़़ीवादी धार्मिक अनुष्ठानों का पालन (कुर्बानी, पशुबलि, दुव्र्यसनों का सेवन), स्वास्थ्य विरोधी सरकारी नीतियाँ, स्वास्थ्य विरोधी विज्ञापन, टीकाकरण जीवन निर्वाह हेतु स्वास्थ्य विरोधी प्रदुषित अथवा अप्राकृतिक व्यावसायिक वातावरण, आर्थिक कठिनाईयाँ, अनियत्रित अपव्यय, बदनामी, प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप, असंयम, दुव्यर्सनों का सेवन, अकरणीय पाश्विक वृत्तियाँ, मिलावट एवं रसायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों से प्रभावित उपलब्ध आहार सामग्री, असाध्य एवं संक्रामक रोगों के प्रति प्रारम्भ में रखी गई उपेक्षावृत्ति, अनावश्यक दवाओं का सेवन तथा शारीरिक परीक्षण, इलैक्ट्रोनिक किरणें जैसे- एक्स रे, टी.वी., सोनोग्राफी, कम्प्यूटर, सी.टी. स्केनिंग, मोबाइल फोन एवं अन्य प्रकार की आणविक तरंगों का दुष्प्रभाव, प्राण ऊर्जा का दुरुपयोग या अपव्यय, आराम, निद्रा, विश्राम का अभाव, क्षमता से अधिक श्रम करना, मल-मूत्र को रोकना, अति भोजन, अति निद्रा, शरीर में रोग प्रतिकारात्मक शक्ति का क्षीण होना, कोषिकाओं का निश्क्रिय होना एवं नवीन कोषिकाओं का सजृन न होना, गलत अथवा अधूरे उपचार तथा दवाओं का दुष्प्रभाव, वृद्धावस्था के कारण इन्द्रियों का शिथिल हो जाना। प्रमाद, आलस्य, अविवेक, अशुभ चिन्तन, आवेग, अज्ञान, असजगता, हिंसक, मायावी, अनैतिक जीवन शैली, जिससे सदैव तनावग्रस्त एवं भयभीत रहने की परिस्थितियाँ बनना, भीड़ एवं भ्रामक विज्ञापनों पर आधारित जीवनशैली आदि रोगों के मुख्य कारण होते हैं।
कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता-आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है। मृत्यु के लिए सौ सर्पो के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। आज जब तक रोग के लक्षण बाह्य रूप से प्रकट न हों, हमें परेशान नहीं करते, न तो हमें रोग का पता लगता है और न सभी रोग आधुनिक परीक्षणों की पकड़ में ही आते हैं। अतः हम रोग को रोग ही नहीं मानते। जब निदान ही अपूर्ण हो तो ऐसे उपचार कैसे पूर्ण और स्थायी रोग मुक्ति का दावा कर सकते हैं? रोग में तुरन्त राहत दिलाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता, जिस पर प्रत्येक बुद्धिमान, सजग, चिन्तनशील प्राणी का चिंतन अपेक्षित है।
परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोग की अवस्था में निदान और उपचार करते समय प्रायः अधिकांश चिकित्सक, व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले उपरोक्त प्रभावों का समग्रता से विश्लेषण नहीं करते।

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रोग कब?

जैसे अग्नि के सम्पर्क से पानी उबलने लगता है परन्तु जैसे ही पानी को अग्नि से अलग करते है, धीरे-धीरे वह स्वतः ही ठंडा हो जाता है। शीतलता पानी का स्वभाव है, गर्मी नहीं। पानी को वातावरण के अनुरूप रखने के लिए किसी बाह्य आलम्बन की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार शरीर में हड्डियों का स्वभाव कठोरता होता है परन्तु किसी कारणवश कोई हड्डी नरम हो जाए उससे लचीलापन आ जाए तो रोग का कारण बन जाती है। मांस-पेशियों का स्वभाव लचीलापन है, परन्तु उसमें किसी कारणवश कठोरता आ जाए, गांठ हो जाए अथवा विजातीय तत्वों के जमाव के कारण अथवा आवश्यक रसायनों के अभाव के कारण यदि शरीर के किसी भाग की मांसपेशियों में लचीलापन समाप्त हो जाए अथवा क्षमतानुसार न हों तो रोग का कारण बन जाती है। शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारेनहाइट रहना चाहिए, परन्तु किसी कारणवश कम या ज्यादा हो जाए तो शरीर में रोग के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। रक्त सारे शरीर में आवश्यकतानुसार ऊर्जा पहुँचाने का कार्य अबाध गति से करता है। अतः उसके सन्तुलित प्रवाह हेतु आवश्यक गर्मी एवं निश्चित दबाव आवश्यक होता है, परन्तु यदि हमारी अप्राकृतिक जीवन शैली से रक्त का बराबर निर्माण न हों अथवा दबाव आवश्यकता से कम या ज्यादा हो जाए, तो सारे शरीर में प्राण ऊर्जा का वितरण प्रभावित हो जाता है। रक्त नलिकाओं के फैलने अथवा सिकुड़ने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है अर्थात् अपना स्वरूप बदल देती है अतः रोग की स्थिति पैदा हो जाती है।

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रोग क्या है?

शरीर में विकारों, दोषों, विजातीय अथवा अनुपयोगी तत्त्वों का जमा होकर, शरीर के विभिन्न तन्त्रों के स्वचालित, स्वनियंत्रित कार्यो में अवरोध अथवा असन्तुलन उत्पन्न करना, कोषिकाओं का निश्क्रिय हो जाना, रोग होता है। असंयमित, अनियंत्रित, अविवेकपूर्ण स्वछन्द आचरण के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं का अपव्यय, दुरुपयोग करने से जो विकार उत्पन्न हों, असंतुलन की स्थिति बनती है, वही रोग होता है। शरीर एवं मन की सभी क्रियाएँ, अंग, उपांग, इन्द्रियाँ, तंत्र, अवयव आदि का अपना-अपना कार्य स्वतंत्रता पूर्वक सामान्य रूप से नहीं कर पाना भी रोग कहलाता है। शरीर, मन और आत्मा के अवांछित, विजातीय, अनुपयोगी विकारों का विसर्जन बराबर न होने से पीड़ा, दर्द, वेदना, जलन, सूजन, विघटन, चेतना की शून्यता, तनाव, बैचेनी, भय, चिन्ता, अधीरता, असजगता, गलत दृष्टिकोण व चिन्तन, जीवन के प्रति निराशा आदि के जो लक्षण प्रकट होते हैं, वही मिलकर रोग कहलाते हैं। विकार रोग का सूचक है- अच्छे स्वास्थ्य का अर्थ है, विकार मुक्त अवस्था। रोग का तात्पर्य विकारयुक्त अवस्था यानी जितने ज्यादा विकार उतने ज्यादा रोग। जितने विकार कम उतना ही स्वास्थ्य अच्छा। जब वे विकार शरीर में होते हैं तो शरीर रोगी बन जाता है। परन्तु जब ये विकार मन, भावों और आत्मा में होते हैं तो क्रमशः मन, भाव और आत्मा विकारी अथवा अस्वस्थ कहलाते हैं।

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