विज्ञान का आधार होता है सत्यदृष्टि, सनातनदृष्टि, अनेकांतदृष्टि, समग्रदृष्टि। इसके विपरीत जिसमें आग्रह है, दुराग्रह है एकान्त मान्यताओं एवं धारणाओं का पोषण होता है, मायावी आचरण है, वहाँ कितना ही विज्ञापन क्यों न हो वह सोच विज्ञान नहीं हो सकता। विज्ञान की पहली शर्त है। ‘‘सच्चा सो मेरा न कि मेरा सो सच्चा।’’ प्राप्त सूचनाओं , प्रमाणों तथा प्रयोगों एवं परीक्षणों से उपलब्ध आंकड़ों का व्यवस्थित लिपिबद्ध संकलन और प्रस्तुतिकरण विज्ञान का एक पक्ष मात्र है। जब तक धर्म, कर्म, नियति, स्वभाव व काल आदि के प्रभावों को नकारा जाएगा, चेतना का सत्य समझ में नहीं आयेगा। अध्यात्म के बिना शरीर का स्वास्थ्य विज्ञान अधूरा है, अपूर्ण है। स्वास्थ्य विज्ञान के लिये सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् आचरण आवश्यक होता हैं।
वैज्ञानिक शोध का आधार होना चाहिए अंतिम परिणामों का स्पष्ट प्रकटीकरण। अर्थात् लाभ और हानि का सही विश्लेषण। प्रत्येक चिकित्सक अपनी उपलब्धियों को तो बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं, प्रचारित करते हैं, परन्तु जहाँ-जहाँ अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते अथवा जो दुष्प्रभाव होते हैं, उनकी उपेक्षा करते हैं, छिपाते हैं, प्रकट नहीं करते हैं तथा उनके कारणों का विश्लेषण तक नहीं करते हैं। स्वास्थ्य विज्ञान की शोध के आधार में एकरूपता होनी चाहिये अर्थात् जिन रोगियों अथवा प्राणियों पर दवाओं अथवा उपचार के जो प्रयोग किये जाते हैं, उनका खान-पान, रहन-सहन, स्वभाव, मानसिकता, आचार-विचार, सोच, चिन्तन-मनन की प्रक्रिया, पारिवारिक समस्याएँ तथा शरीर में अप्रत्यक्ष एवं सहयोगी रोगों की एकरूपता भी होनी चाहिए, क्योंकि यही कारण रोग से संबंधित होते हैं। ऐसी परिस्थितियाँ सभी रोगियों में एक सी होना कभी भी संम्भव नहीं होती। अतःउसके अभाव में प्रस्तुत रोग निदान के परिणाम कैसे पूर्ण वैज्ञानिक और सत्य पर आधारित समझे जा सकते हैं, चिन्तन का प्रश्न है?