साधक तनाव ग्रस्त क्यों?
आज अधिकांश साधकों, उपासकों, ऋषि, मुनियों की मनःस्थिति शांत नहीं हैं। दीर्घकालीन साधना एवं क्रियाओं को करने के उपरान्त भी मनोवृत्तियों में परिवर्तन बहुत कम हो पा रहा है। बाह्य मुस्कराहट एवं आचरण के पीछे तनाव स्पष्ट झलकता है जिसको प्रमाद, आलस्य, अरूचि, अविश्वास, परदोष-दृष्टी, दुर्भावना, निंदा, घृणा, राग, द्वेष, घमंड, असंतोष, मायावी आचरण इत्यादि के रूप में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
गुण-ग्राहकता का अभाव होता जा रहा है एवं पूर्वाग्रहों के कारण अपनी मान्यताओं के ऊपर उठ हम सोचने एवं अच्छाई देखने तक तैयार नहीं। प्रायः हमारा दृष्टिकोण एकांतवादी एवं संकुचित होता जा रहा है। ‘गुणीशु प्रमोदम्’ एवं सुकृत अनुमोदना की भावना लुप्त होती जा रही है। आत्म-चिंतन एवं स्व-निरीक्षण प्रायः गौण हो रहा है। अनेकांत सिद्धांत का महत्त्व समझने वाले भी विचारों का पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पा रहे हैं। साधना की विभिन्न पद्धतियों के मतभेद हमारे मनभेद बढ़ा व्यर्थ ही हमारी शांति भंग कर रहे हैं। हम नहीं समझ पा रहे हैं कि जो भी साधना जीवन में समभाव लाती है, वीतरागता की तरफ बढ़ाती है, करणीय है एवं इसके विपरीत जो राग-द्वेश बढ़ाती है, इन्द्रिय विशय कशायों को प्रोत्साहन देती हैं अकरणीय हैं, भले ही किसी भी नाम, रूप एवं पद्धति से की जावे। आत्मावलोकन ही साधना का उद्देष्य होता है। जहाँ इन सिद्धांतों की उपेक्षा होती हैं, वहाँ साधक मन ही मन तनाव ग्रस्त रहता है। सम्यक् श्रद्धा, चिन्तन, तर्क एवं आचरण ही तनाव मुक्त करने में सहयोगी बन सकते हैं।
साधना के बदलते मापदंड
कहीं पर बाह्य अनुशासन, नियंत्रण, एकरूपता एवं अच्छा व्याख्यान ही समाज के लिये साधना की योग्यता का मापदंड बनते जा रहे हैं, भले ही साधना के क्षेत्र में शिथिलाचार, स्वछन्दता, प्रदर्शन का दोहरा आचरण हो रहा हो। प्रचार-प्रसार को प्राथमिकता देने की आड़ में शिथिलाचार, स्वछन्द मनोवृत्ति एवं मूल सिद्धान्तों की अवहेलना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। धार्मिक क्षेत्र में प्रायः चिन्तनशील जानकार श्रावकों के स्थान पर पद एवं पैसे वालों का वर्चस्व एवं हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। प्रमुख पदाधिकारियों के चयन में भी धार्मिक सिद्धान्तों की जानकारी तथा उसका जीवन में आचरण एवं समय के भोग जैसे महत्वपूर्ण पक्ष को प्राथमिकता नहीं दी जा रही है। समयाभाव के कारण माता-पिता के रूप में संघ का दायित्व निभाने वाले पदाधिकारियों को संतों की मनःस्थिति का सही अनुमान नहीं लगता। संघ तो गुणियों का होता है। परन्तु आजकल अधिकांश धार्मिक संघ उस मापदण्ड पर खरे नहीं उतर रहें हैं। हमें चिन्तन करना होगा कि भगवान महावीर की प्रथम देषना में तीर्थ की संरचना क्यों नहीं हुई। संघ के कर्णधारों से चिंतन की अपेक्षा रखता है? सच्चे आत्मार्थी साधक चाहते हुए भी उसका समाधान नहीं खोज पा रहे हैं।
इस कारण आत्मार्थी साधक भी बुराई को बुरा मानते हुए भी दृढ़ मनोबल के अभाव में बुरा कहने का साहस नहीं जुटा पाते। उनकी दुविधाओं, भावनाओं एवं मनःस्थिति को समझने का किसी को समय नहीं है। अधिकांश साधकों की साधना आज क्यों निष्प्राण होती जा रही है? श्रमणों की साधना में हम कैसे सहयोगी बन सकते हैं, समाज का इस दिशा में चिंतन प्रायः सुप्त हो गया है। साधकों की योग्यताओं, प्रतिभाओं एवं क्षमताओं का साधना में समुचित विकास नहीं हो पा रहा है। उनकी सम्यक् आकांक्षाओं का समाधान नहीं हो पा रहा है। फलतः साधना भार स्वरूप प्रतीत हो रही है। साधना के प्रति जितना प्रमोद, रुचि, उत्साह, सजगता एवं सतर्कता होनी चाहिये, प्रायः दृष्टिगत नहीं हो पा रही है। जिस उत्साह एवं भावना के साथ साधना के पावन क्षेत्र में वे प्रवेश करते हैं, साधारण सी प्रतिकूल परिस्थितियों एवं परीषह के आते ही अपना धैर्य खो बैठते हैं। मन को अस्थिर बना, चिंतन की धारा बदल देते हैं।
अपने सहयोगियों की उपेक्षा-वृत्ति, दुर्भावना, अविश्वास, भेदभावपूर्ण आचरण एवं व्यवहार के कारण चंद साधकों की मनःस्थिति स्पष्ट नहीं है। लोक-व्यवहार एवं भेश की मर्यादा के कारण वे मन ही मन उलझन में हैं। वे न तो अपनी व्यथा किसी को सुना सकते हैं और न कोई आत्मीयता के साथ सुन, समाधान करने का चिंतन ही करता है। तनाव के पीछे चाहे जो कारण रहे हों, साधक को साधना से विचलित करते हैं एवं स्वयं के लक्ष्य से भटकातें हैं।
प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण के माध्यम से आत्मावलोकन करने वाले प्रायः इस बात का चिंतन तक नहीं करते कि वे क्यों अषांत एवं तनाव-ग्रस्त हैं? उनमें समभाव का कितना विकास हुआ है? कहीं वे सम्प्रदायिक कट्टरता से तो ग्रसित नहीं है। क्या तनाव का कारण उनकी व्यक्तिगत अपेक्षाएँ एवं महत्त्वाकांक्षाएँ तो नहीं है? क्या श्रमण परिवार एवं समाज की उपेक्षा तो तनाव का कारण नहीं है?
प्रत्येक साधक को षांत मन से पूर्वाग्रह छोड़ इस बात का चिंतन करना होगा कि क्या हमारा स्वयं का आचरण एवं व्यवहार तो तनाव के लिये जिम्मेदार नहीं है? कहीं तनाव उन में कशायों की अभिवृद्धि तो नहीं कर रहा है? तनाव हमारे मूल गुणों का घातक तो नहीं बन रहा हैं? शांति तथा चित्त की निर्मलता के बिना साधना के पावन उद्देष्यों को कैसे प्राप्त करेंगे? उनके चेहरे पर जो त्याग, तप एवं संयम का ओज-तेज दैदीप्यमान होना चाहिए वह क्यों नहीं झलक रहा है? उनकी विष्वसनीयता चंद अंध श्रद्धालुओं तक ही क्यों सीमित हो रही है? क्या उनका आचरण सिद्धांतों एवं मर्यादाओं के अनुकूल हैं? जन साधारण जिन गुणों की कल्पना से उन्हें आदर, वंदन, नमस्कार करता है, यदि साधक उन गुणों से वंचित है तो क्या कर्ज का भागीदार तो नहीं बनता है? उनकी कथनी-करनी में विरोधाभास तो नहीं हैं? जीवन में लुकाव-छिपाव जैसी मायावी स्थिति तो नहीं हैं?
स्वयं की मनःस्थिति उनसे छिपी हुई नहीं हैं। क्या साधक अपने आपको स्वयं के प्रति ईमानदार होने का दावा कर सकते हैं? वे ही अपने सच्चे समीक्षक, निरीक्षक एवं परीक्षक होते हैं। दुनियाँ भले ही बाह्य क्रियाओं एवं वेष से, उनके आचरण से धोखा खा जावे, किन्तु वे अपने आपको धोखा नहीं दे सकते। उत्कृश्ट साधकों का निरंतर स्मरण करने से उनमें आत्म-विष्वास जागृत होगा एवं साधक साधना के प्रति सजग, सतर्क एवं सक्रिय होने से तनाव मुक्त बनेगा।
साधकों में तनाव को समझने के लिये साधना की प्राथमिकताओं, मूल सिद्धांतों के पालन में सहयोगी तत्त्वों, व्यवस्थाओं, वातावरण एवं परिस्थितियों का अध्ययन करना होगा। हमें भी अपने दायित्वों एवं कर्तव्यों को सजगतापूर्वक निभाना होगा तथा अपने से सम्बन्धित तनाव के कारणों को दूर करना होगा। आज अधिकांश समाज धार्मिक ज्ञान से परे होता जा रहा है। यहाँ तक कि धार्मिक संस्थाओं में कार्यरत पदाधिकारियों को मूल सिद्धांतों की सामान्य जानकारी तक नहीं है। भौतिक उपलब्धियों से प्राप्त सहयोग की आकांक्षाओं से नेतृत्व का भार उन पर सौंप दिया जाता है। विशम परिस्थितियों में वे ही सलाहकारों की भूमिका निभाते हैं। जो श्रावक साधु समाज के लिये माता-पिता के तुल्य होते हैं, सामान्य जानकारी के अभाव में, वे साधकों की साधना में कैसे सहयोगी बन सकते हैं? कहीं हमारा चिंतन, राग एवं अंध श्रद्धा साधकों को साधना से विचलित करने की भूमिका तो नहीं निभा रहे हैं?
ऐसे पदाधिकारी अहम् और महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु साधकों को षिथिलाचारी बना भ्रमित तो नहीं कर रहे हैं? साधना की पात्रता के आवष्यक मापदंडों की जानकारी के अभाव में अधिकांश समाज सिद्धांतों के प्रतिकूल आचरणों को बुरा तक नहीं मानता। समय की आवष्यकता के नाम पर,नियम-मर्यादाओं में छूट का पक्षधर बन, साधकों को प्रमादी बनाने में सहयोगी बनता जा रहा है। अपने उत्तरदायित्वों एवं कर्तव्यों के पालन, संघ व्यवस्थाओं में साधकों को उलझा, उनकी साधना में व्यवधान पैदा कर रहे हैं। श्रावक समाज अपनी सजगता, निश्ठा खो रहा है, एवं जो कार्य साधकों की मर्यादाओं के प्रतिकूल हैं, उन्हें करने अथवा परामर्ष हेतु निरंतर प्रेरित करते संकोच नहीं कर रहा है।
साधक दोहरे आचरण में उलझता जा रहा है। फलतः साधना हेतु जो आचरण त्याज्य हैं, उन्हें करते संकोच नहीं हो रहा है। दोहरा चिंतन एवं आचरण ही तनाव का मुख्य कारण होता है। अतः श्रावक समाज का परम दायित्व है कि साधकों की साधना के पावन उद्देष्यों की तरफ सदैव सजग रखने का विवेक रखें। व्यवस्थाओं एवं कार्यप्रणालियों का संचालन इस प्रकार किया जावे, जिससे साधकों की साधना में दोश न लगें। उनकी समस्याओं, भावनाओं का विवेकपूर्ण मर्यादाओं के अनुकूल सम्यक् समाधान हांे। उनकी साधना में सहयोगी बन, मनःस्थिति तनावमुक्त रखने हेतु प्रेरित करें। इसके लिए आवष्यक हैं- सम्पूर्ण समाज में धार्मिक ज्ञान के प्रति चेतना जागृत की जावे एवं प्रमुख पदाधिकारियों को चयन करते समय इस मापदंड की उपेक्षा न हों अपितु सर्वाधिक प्राथमिकता दी जाये।
जब हम स्वयं अस्पश्ट हैं, अस्थिर हैं, भ्रमित हैं, पूर्वाग्रहों एवं अंध श्रद्धा से ग्रसित हैं, हमारा आचरण संदिग्ध हैं, तो साधकों के प्रति अपना कर्तव्य कैसे निभा पावेंगे? वास्तव में यह चिंतन एवं चिंता का विशय है। जो श्रावक समाज इस दिषा में जागरूक हैं, विवेकषील हैं, प्रयत्नषील हैं, वहाँ साधकों में व्यर्थ प्रपंचों से दूर रहने के कारण तनाव कम देखने में आता है। कभी-कभी जब समाज के प्रतिश्ठित व्यक्तियों को साधकों से अपेक्षित आदर-सत्कार के स्थान पर उपालंभ मिलता हैं तो उनके अहम् पर चोट लगती है। उनकी दृश्टि साधकों के दोशों को देख उनकी कमजोरियों का मिथ्या एवं भ्रामक प्रचार करने की हो जाती है। उनका ऐसा आचरण भी साधकों के तनाव का कारण बन सकता है। ऐसे तनाव ग्रस्त साधकों को चिंतन करना होगा कि वाणी का अविवेक तनाव का मुख्य कारण होता है। अतः अपनी भाशा समिति पर विषेश नियंत्रण रखने का प्रयास करें। द्रौपदी के षब्द-‘‘अंधें के अंधें ही होते हैं।’’ जीवन पर्यन्त तनाव के कारण बने। जहाँ वाणी में मधुरता है, वहाँ ऐसा तनाव नहीं हो सकता।
परन्तु कभी-कभी जब चिंतनषील, अनुभवी श्रावक विवेकपूर्वक साधकों को उनके षुद्ध स्वरूप के बारे में सजग करते हैं, साधु-मर्यादाओं का ध्यान दिलाते हैं तो साधकों के अहम् पर चोट पहुँचती हैं। वे उन्हें अपने मार्ग का कांटा समझने तक की भूल कर देते हैं। उनकी उपस्थिति मात्र साधकों को तनावग्रस्त बना देती हैं। वे उन्हें साधना में सहायक समझने के स्थान पर अपना प्रतिद्वंद्वी समझ ‘‘छोटे मुँह बड़ी बात’’ करने का आरोप लगाते तनिक भी संकोच नहीं करते। अपने अंध श्रद्धालुओं का उपयोग उनको बदनाम करने में लगे तो भी कोई आष्चर्य नहीं। जहाँ माया वृत्ति है, गुण ग्राहकता नहीं है, स्वदोश दर्षन नहीं है, पूर्वाग्रह है, वहाँ तनाव स्वाभाविक है। यदि साधक उन्हें अपना हितचिंतक समझ अपने आचरण में सुधार करें तो उसका तनाव समाप्त हो जाता है। ऐसे प्रसंगों पर साधकों को गणधर गौतम की उस घटना का अवष्य स्मरण करना चाहिये, जब उन्होंने अपनी गलती के लिए, आनन्द श्रावक से क्षमा मांगते तनिक भी संकोच एवं देर नहीं की। जहाँ ऐसी सरलता होती है, वहाँ तनाव रह नहीं सकता। गलतियों का प्रायश्चित करने से मन को शांति मिलती है एवं मन तनाव मुक्त हो जाता है। पश्चाताप तनाव कम करने में सहायक बनता है। इसके विपरीत जो गलती करके पश्चाताप और प्रायश्चित नहीं करता, वह साधक प्रायः तनावग्रस्त रहता है।
साधक को साधना हेतु सर्वाधिक प्रेरणा एवं सहयोग गुरु एवं अन्य सहयोगी साधकों से मिलती है। गुरु का भी कर्तव्य है कि जो साधक उनकी प्रेरणा से साधना के क्षेत्र में आता है, उसमें आत्मविश्वास जगावें एवं सही मार्ग दर्शन द्वारा उसकी योग्यताओं एवं क्षमताओं को विकसित करें। आत्मीयता के साथ, साधक को अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विकास करने के लिए समय-समय पर प्रोत्साहित करें। मनःस्थिति अशांत, अस्थिर एवं तनाव ग्रस्त न बने, इस बात का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखें। साधना से विचलित होने पर सावधान करें, परन्तु कभी भी अनुरागवश दुष्प्रवृतियों की अनदेखी न करें।
अपने विषयों को तनावमुक्त करने में वे ही अहं भूमिका निभा सकते हैं। गुरु की सजगता, सतर्कता, आत्मीयता, सद्भाव एवं प्रेरणा ही साधना के दुर्गम पथ को सुगम बना सकती है। गुरुओं की नियमित-निरंतर सद्प्रेरणा तथा विवेकपूर्ण आचरण एवं व्यवहार ही विषय को अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जहाँ उत्साह है, रुचि है, समर्पण एवं श्रद्धा है, वहाँ तनाव रह ही नहीं सकता। वहाँ तो साधक को एक ही जिज्ञासा रहती है और वह है-आत्मोत्थान की। साधक प्रतिक्षण सजग, जागृत एवं अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है एवं सम्पर्क में आने वालों पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता।
कहीं-कहीं गुरु स्वयं अपनी कमजोरी अथवा महत्त्वाकांक्षाओं के कारण मर्यादाओं के विपरीत आचरण करते हैं एवं विषयों को न चाहते हुए भी उनके कार्यो का अनुमोदन करना पड़ता है, सहयोग देना पड़ता है। वे अनुशासन, निष्ठा एवं श्रद्धा से इतने अधिक कटिबद्ध होते हैं कि प्रथम तो अपनी भावना अथवा विचार अभिव्यक्त ही नहीं कर सकते क्योंकि ऐसे आचरण अंध श्रद्धालुओं की दृष्टी में संगठन के प्रतिकूल अनुशासनहीनता के होते हैं। जो गुरु के प्रति निष्ठा, श्रद्धा को अविश्वसनीय बनाते हैं, ऐसे साधकों को संघ से निष्काशित, तिरस्कारित होने का भय रहता है। परम्पराओं, संगठन, अनुशासन आदि की आड़ में कोई भी सहयोग करने को प्रायः तैयार नहीं होता। ऐसे सजग साधक प्रायः तनावग्रस्त रहते हैं एवं जब उनका मनोबल दृढ़ हो जाता है तो अपने विचार रखते तनिक संकोच नहीं करते। भले ही उन्हें संगठन से अलग ही क्यों न होना पड़े।
आजकल प्रायः दीक्षा देते समय अधिकांश गुरुओं द्वारा विषयों का सही चयन नहीं होता, उनके संस्कारों का सजगतापूर्वक अध्ययन नहीं किया जाता और न ही साधना के पवित्र क्षेत्र में आने वाली कठिनाइयों, परीषहो, उपसर्गो के प्रति विषयों को सजग ही कराया जाता है। साधु मर्यादाओं का विस्तृत ज्ञान नहीं करवाते, परन्तु परिवार बढ़ाने के उद्देश्य से विनय, सरलता जैसे पात्रता के मूल गुणों की अवहेलना करते हुए भी संकोच नहीं करते हैं, तो ऐसे साधक साधना को भार स्वरूप समझ तनावग्रस्त रहें तो आश्चर्य नहीं।
प्रारम्भ में तो लोक-व्यवहारों एवं जनसाधारण की प्रतिक्रियाओं से बचने की आड़ में वास्तविकता प्रकट न हो जावे, विषयों के उचित-अनुचित कृत्यों की अनदेखी करने से तनावग्रस्त रहते हैं। जिस प्रकार बच्चों का भविश्य अभिभावक की सजगता, विवेक एवं अनुराग पर निर्भर करता है, यदि प्रारम्भ से उस पर नियंत्रण न रखा जावे, हित-अहित का बोध न कराया जावे तो बड़ा होने पर उस पर अंकुष रखना कठिन होता है। उसी प्रकार जो रागवष अपने विषयों में प्रमाद की उपेक्षा करते हैं, प्रारम्भ से ही उनको सुसंस्कारित, सरल बनाने हेतु सजगता नहीं रखते एवं सिद्धान्तों के विरुद्ध आचरण की उपेक्षा करते हैं तो भविश्य में वे अनियंत्रित एवं स्वछंद बन अन्य साधकों के तनाव का कारण बन सकते हैं।
परन्तु जो गुरु अपने षिश्य से अनुषासन, नियंत्रण, सेवा, आज्ञा पालन की तो अपेक्षा करते हैं परन्तु उनकी मनःस्थिति को समझने का प्रयास नहीं करते, समस्याओं का सम्यक् समाधान नहीं करते एवं भावनाओं की उपेक्षा करते हैं, सहयोग, आत्मीयता का व्यवहार नहीं करते हैं तो विषय निराश, हतोत्साह, उदासीन, अशांत एवं तनावग्रस्त हो, साधना के पवित्र मार्ग से भटक जावें तो भी आष्चर्य नहीं। विनय के अभाव में अपने प्रति उपेक्षावृत्ति देख उसके स्वाभिमान को चोट लगती है। अन्दर ही अन्दर विद्रोह की भावना पनपने लगती है एवं जब उसका विस्फोट होता है तो वाणी का संयम नहीं रह पाता। आरोप-प्रत्यारोप, निंदा, घृणा, द्वेश, वैमनस्य जैसे अकरणीय आचरण करते हुए भी तनिक संकोच नहीं होता। साधक अपनी स्थिति एवं भान भूल जाता है, जो उनके लिए तो अहितकर है ही, जनसाधारण में भी व्यर्थ चर्चा का विशय बनता है। आपसी विष्वास की समाप्ति एवं स्वछंद मनोवृत्ति साधक को तनावग्रस्त बना देती है। कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ साधक के विवेकहीन आचरण एवं उसको बुरा न मानने से भी उत्पन्न हो जाती हैं। जीवन में प्रायः कुछ भौतिक उपलब्धियाँ अच्छा प्रवचन, तपस्वी होने का अहं एवं सफलता का नषा इसका मूल कारण होता है।
ऐसी परिस्थितियों में सद्भावना, वाणी का विवेक एवं सुधारवादी दृश्टिकोण ही तनाव दूर करने में सबल निमित्त बन सकते हैं। इसके विपरीत दुर्भावना, निंदा, उपेक्षा, गलतफहमी, विघटन को प्रोत्साहन देती है। विघटन कभी भी तनावमुक्ति का समाधान नहीं हो सकता। समाज के षुभचिंतकों को एकपक्षीय चिंतन छोड़, परिस्थितियों के कारणों का चिंतन करना चाहिये। दूसरों के दोश, कमजोरियाँ देखने के बजाय अपनी भूमिका का चिंतन करना चाहिये। उसमें आवष्यक सुधार करना चाहिये। क्या उनकी उपेक्षावृत्ति इस समस्या का कारण नहीं है? ऐसे समय छोटी-छोटी बातों को तूल नहीं देना चाहिये, न प्रत्येक बात का स्पश्टीकरण देकर पुरानी बातों की चर्चा। ऐसे प्रसंगों पर हमारी सद्भावना, आत्मीयता, करुणाभाव, व्यापक दृश्टिकोण, विवेक ही भटके हुए साधक को पुनः अपने उद्देष्यों की तरफ बढ़ने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं। इसके विपरीत हमारी दुर्भावना, कटुता, द्वेश, अविवेक साधकों एवं समाज को तनावग्रस्त कर देंगंे।
साधकों में तनाव मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है। प्रथम तो उद्देष्यों की प्राप्ति में अपेक्षित सहयोग न मिलने का। जैसे अध्ययन की भावना होते हुए भी अध्ययन न कर पाना, ज्ञान का क्षयोपषम न होना। चाहते हुए भी ध्यान, मौन, तपस्या की साधना न कर पाना, प्रमादवष अपनी क्षमताओं का पूर्ण सदुपयोग न कर पाना, आत्मार्थी गुरुओं का सान्निध्य न मिलना। निरंतर अकारण उपेक्षित एवं प्रताडि़त होना, जैसे कर्मजन्य कारण भी साधकों का तनाव बढ़ाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में साधक को चिंतन करना होगा कि तनाव समस्या का समाधान नहीं, उल्टा उद्देष्य पूर्ति में बाधक होता है। समभावपूर्वक उत्पन्न हुई परिस्थितियों का सदुपयोग करने से ही तनाव कम हो जाता है।
गुरु की सेवा षिश्य का प्रथम कत्र्तव्य है। परन्तु कभी-कभी गुरु जब अनावष्यक सेवा के कारण अध्यनरत षिश्य के ज्ञानाराधन में अन्तराय का निमित्त बनते हैं। तो आत्मार्थी षिश्य भी तनावग्रस्त हो जाते हैं। कभी-कभी गुरु षिश्य को साधना के क्षेत्र में उनकी क्षमताओं के उचित विकास में सहयोगी बनने के बजाय हस्तक्षेप करते हैं तो षिश्य का तनावग्रस्त रहना स्वभाविक है। गुरु का स्वविवेक एवं रूचि के अनुरूप षिश्य की क्षमताओं के उचित विकास में सहयोग से ही युवा आत्मार्थी अप्रमादि संतों का तनाव दूर हो सकता है।
आत्मार्थी साधक जब धार्मिक क्षेत्र में षिथिलता एवं सिद्धान्तों-मर्यादाओं के विपरीत आचरण देखते हैं, तो सहज ही तनावग्रस्त हो जाते हैं। सामाजिक कुरीतियाँ, नैतिक-पतन, हिंसा लूट, आतंकवाद, धोखाघड़ी की घटनायें, गलत मान्यताओं का संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार करते हुए देखते हैं, जिससे प्रत्यक्ष में साधक का भले ही सम्बन्ध नहीं होता फिर भी गुणों का उपासक होने के कारण मानवता पर होने वाले कलंकों से तनावग्रस्त होना स्वाभाविक है। ऐसी परिस्थितियों में साधकों को करुणा, मैत्री एवं माध्यस्थ भाव का चिंतन कर तनावमुक्त होना चाहिये।
दूसरे प्रकार के तनाव का कारण अपने उद्देष्यों, कर्तव्यों एवं सिद्धान्तों के प्रति जानते हुए भी उपेक्षावृत्ति रखना प्रमुख कारण होता है। साधक का अज्ञान तथा लक्ष्य एवं सिद्धान्तों के प्रति अविष्वास, जिससे साधक स्वछंद बनता है, प्रतिकूल परिस्थितियों एवं परीशहों को सहन करने का मनोबल खो देता है। स्वसुधार की उपेक्षा कर पर सुधार हेतु प्रचार-प्रसार के लिये अनावष्यक मर्यादाओं के विरुद्ध प्रपंचों में फंस जाता है। बाहर से तो अपनी भौतिक उपलब्धियों के एवं अहं पूर्ति के कारण प्रसन्न चित्त रहता है परन्तु आत्म-निरीक्षणों के समय व्रतों के खंडन के कारण अपनी भूलों का क्षणिक दुःख अवष्य होता है। बुराई को बुरा न मानने वालों को सोचना होगा कि आग की एक चिनगारी घास के ढेर को समाप्त कर देती है, हजारों मन दूध को विश की चंद बूँदे अपेय बना देती है, छोटा सा कलपुर्जा खराब होने पर पूरा कारखाना बंद हो जाता है, उसी प्रकार छोटी-छोटी भूलें साधक को साधना से भ्रमित कर सकती हैं।
प्रत्येक साधक को अपने-अपने तनाव के कारणों का व्यापक अध्ययन करना चाहिये। निरंतर सिद्धान्तों से अपने आचरण की समीक्षा करने एवं सहयोगियों से अपने दोशों तथा गलतियों के बारे मं जानकारी मालूम करनी चाहिए। जहाँ विनय है, मधुरता है, सरलता है, गुण ग्राहकता है, समर्पण है, संतोश है, वहाँ तनाव रह नहीं सकता। परन्तु जितना-जितना इन गुणों का अभाव होगा उतना-उतना साधक तनावग्रस्त होगा। जो तनावग्रस्त होगा वह बाह्य रूप से महान् साधक होने के बावजूद भी साधना के मार्ग से भटक जावेगा। अतः साधकों को सर्वाधिक प्रयास तनावमुक्त होने का करना चाहिये। जितना-जितना साधक तनावमुक्त होगा उतनी-उतनी अन्य साधनाएँ फलीभूत होंगी।