आज लोगों की ऐसी प्रवृति बन गई है कि वे वैज्ञानिक तथ्यों को ही सुनना, समझना और ग्रहण करना पसंद करते हैं, भले ही वे वैज्ञानिक, मौलिक मापदण्डों से अपरिचित ही क्यों न हों? आज जो निदान के वैज्ञानिक भौतिक साधन उपलब्ध हैं, वे व्यक्ति की मानसिकताओं, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं, आवेगों का विश्लेषण नहीं कर सकते। भय, दुःख, चिन्ता, तनाव, निराशा, अधीरता, पाश्विक वृत्तियाँ, गलत सोच, क्रोध, छल, कपट, तृष्णा, अहं, असन्तोष से होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को नहीं बतला सकते। भौतिक उपकरण और परीक्षण के तौर-तरीकों से रोगों से पड़ने वाले भौतिक परिवर्तनों का ही पता लगाया जा सकता है, उनके मूल कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता। अतः ऐसा निदान अपूर्ण ही होता है। उसके आधार पर की गई चिकित्सा कैसे पूर्ण अथवा वैज्ञानिक होने का दावा कर सकती है? वास्तव में आज स्वास्थ्य विज्ञान, विज्ञान से ज्यादा विज्ञापन से प्रभावित हो रहा है, इसी कारण स्वास्थ्य संबंधी सनातन सिद्धातों की उपेक्षा विज्ञान की आड़ में हो रही है।
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