अज्ञान सभी दुःखों का मूल है। स्वास्थ्य संबंधी सामान्य प्राकृतिक सनातन नियमों का ज्ञान न होना और उसके विपरीत आचरण करना, अधिकांश रोगों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण होता है। प्रकृति किसी भी ज्ञानी या अज्ञानी को नियम विरूद्ध कार्य करने के लिए क्षमा नहीं करती। वहाँ अज्ञानता का कोई बहाना नहीं चलता। अग्नि, अग्नि को स्पर्श करने वाले को जलायेगी। यह उसका स्वभाव है।
रोग होने के अनेक कारण होते हैं। जैसे पूर्व अथवा इस जन्म के संचित असाता वेदनीय कर्मों का उदय, पैतृक संस्कार और वंशानुगत रोग, आकस्मिक दुर्घटनाएँ, आस-पास का बाह्य प्रदूषित वातावरण, मौसम का परिवर्तन एवं उसके प्रतिकूल आचरण, तनाव पैदा करने वाली पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, अनावश्यक सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़़ीवादी धार्मिक अनुष्ठानों का पालन (कुर्बानी, पशुबलि, दुव्र्यसनों का सेवन), स्वास्थ्य विरोधी सरकारी नीतियाँ, स्वास्थ्य विरोधी विज्ञापन, टीकाकरण जीवन निर्वाह हेतु स्वास्थ्य विरोधी प्रदुषित अथवा अप्राकृतिक व्यावसायिक वातावरण, आर्थिक कठिनाईयाँ, अनियत्रित अपव्यय, बदनामी, प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप, असंयम, दुव्यर्सनों का सेवन, अकरणीय पाश्विक वृत्तियाँ, मिलावट एवं रसायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों से प्रभावित उपलब्ध आहार सामग्री, असाध्य एवं संक्रामक रोगों के प्रति प्रारम्भ में रखी गई उपेक्षावृत्ति, अनावश्यक दवाओं का सेवन तथा शारीरिक परीक्षण, इलैक्ट्रोनिक किरणें जैसे- एक्स रे, टी.वी., सोनोग्राफी, कम्प्यूटर, सी.टी. स्केनिंग, मोबाइल फोन एवं अन्य प्रकार की आणविक तरंगों का दुष्प्रभाव, प्राण ऊर्जा का दुरुपयोग या अपव्यय, आराम, निद्रा, विश्राम का अभाव, क्षमता से अधिक श्रम करना, मल-मूत्र को रोकना, अति भोजन, अति निद्रा, शरीर में रोग प्रतिकारात्मक शक्ति का क्षीण होना, कोषिकाओं का निश्क्रिय होना एवं नवीन कोषिकाओं का सजृन न होना, गलत अथवा अधूरे उपचार तथा दवाओं का दुष्प्रभाव, वृद्धावस्था के कारण इन्द्रियों का शिथिल हो जाना। प्रमाद, आलस्य, अविवेक, अशुभ चिन्तन, आवेग, अज्ञान, असजगता, हिंसक, मायावी, अनैतिक जीवन शैली, जिससे सदैव तनावग्रस्त एवं भयभीत रहने की परिस्थितियाँ बनना, भीड़ एवं भ्रामक विज्ञापनों पर आधारित जीवनशैली आदि रोगों के मुख्य कारण होते हैं।
कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता-आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है। मृत्यु के लिए सौ सर्पो के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। आज जब तक रोग के लक्षण बाह्य रूप से प्रकट न हों, हमें परेशान नहीं करते, न तो हमें रोग का पता लगता है और न सभी रोग आधुनिक परीक्षणों की पकड़ में ही आते हैं। अतः हम रोग को रोग ही नहीं मानते। जब निदान ही अपूर्ण हो तो ऐसे उपचार कैसे पूर्ण और स्थायी रोग मुक्ति का दावा कर सकते हैं? रोग में तुरन्त राहत दिलाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता, जिस पर प्रत्येक बुद्धिमान, सजग, चिन्तनशील प्राणी का चिंतन अपेक्षित है।
परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोग की अवस्था में निदान और उपचार करते समय प्रायः अधिकांश चिकित्सक, व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले उपरोक्त प्रभावों का समग्रता से विश्लेषण नहीं करते।
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