‘नीरोग’ का मतलब रोग उत्पन्न ही न हो। ‘आरोग्य’ का मतलब शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें उनकी पीड़ा एवं दुष्प्रभावों का अनुभव न हों। आज हमारा सारा प्रयास आरोग्य रहने तक ही सीमित हो गया है। उसमें भी हम मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। मानसिक एवं आत्मिक रोग जो ज्यादा खतरनाक हैं, हमें जन्म-मरण एवम् विभिन्न योनियों में भटकाने वाले हैं, उन रोगों की तरफ हमारा ध्यान जाता ही नहीं। शारीरिक रूप से भी नीरोग बनना असम्भव सा लगता है। रोग शारीरिक हों, चाहे मानसिक अथवा आत्मिक, उसका प्रभाव तो शरीर पर ही पड़ता है। अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होती है, क्योंकि मन और आत्मा तो अरूपी हैं। सांराश में रोग आधि (मानसिक), व्याधि (शारीरिक), उपाधि (कर्मजन्य) के रूप में ही प्रकट होते हैं। अतः आधि, व्याधि, उपाधि को शमन करने से ही समाधि, परम शान्ति अथवा पूर्ण स्वास्थ्य अर्थात् नीरोग अवस्था की प्राप्ति हो सकती है।