अधिकांश रोगियों को न तो रोग के बारे में सही जानकारी होती है और न वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग ही मानते हैं। रोगी का एक मात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उत्पन्न लक्षणों को हटा अथवा दबाकर शीघ्रतिशीघ्र राहत पाना होता है। जैसे ही दर्द से आराम मिलता है, वह अपने आपको स्वस्थ समझने लग जाता हैं। रोगी रोग का कारण स्वयं को नहीं मानता और न अधिकांश चिकित्सक उपचार में रोगी की सजगता और पूर्ण भागीदारी की आवश्यकता ही समझते हैं। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की प्रभावशालीता के भ्रामक विज्ञापन एवं डाँक्टरों के पास रोगियों की पड़ने वाली भीड़ के आधार पर ही रोगी उपचार हेतु चिकित्सक का चयन कर उसके पास अपना आत्मसमर्पण कर देता है। डाँक्टर पर उसका इतना अधिक अन्ध-विश्वास हो जाता है कि रोग का सही कारण अथवा निदान की सत्यता मालूम किये बिना उपचार प्रारम्भ करवा शीघ्रतिशीघ्र राहत पाना चाहता है। रोगी चिकित्सक के द्वारा बताये पथ्य व परहेज और मार्गदर्शन का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन भी करता है। परन्तु शरीर ,मन और आत्मा पर उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तनों की तरफ पूर्ण रूप से उपेक्षा रखने के कारण उपचार के बावजूद कभी-कभी शारीरिक रूप से भी स्वस्थ नहीं हो पाता और कभी तो दवा उसके जीवन का आवश्यक अंग भी बन जाती है।