स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में तालमेल एवं सन्तुलन स्थापित करती है। शरीर की क्षमताओं और उसके अनुरूप आवश्यकताओं में सन्तुलन रखती है। स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ व्यक्ति में धैर्य, सहनशीलता, सजगता, विवेक, स्वदोष दृष्टि एवं आत्म विश्वास विकसित करती है।
व्यक्ति रोग तो स्वयं पैदा करता है, परन्तु दवा और डाँक्टर से ठीक करवाना चाहता है। क्या हमारा श्वास अन्य व्यक्ति ले सकता है? क्या हमारा खाया हुआ भोजन दूसरा व्यक्ति पाचन कर सकता है? प्रकृति का सनातन सिद्धान्त है कि जहाँ समस्या होती है उसका समाधान उसी स्थान पर अवश्य होता है। अतः जो रोग शरीर में उत्पन्न होते हैं उनका उपचार शरीर में अवश्य होना चाहिए। शरीर का विवेकपूर्ण एवं सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता हैं। स्वावलम्बी चिकित्सा में निदान और उपचार में रोगी की भागीदारी एवं सजगता प्रमुख होती है। अतः रोगी उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है, जिससे दुष्प्रभावों की संभावना प्रायः नहीं रहती। ये उपचार बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्मविश्वास से स्वयं कर सकता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ हिंसा पर नहीं, अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, परावलम्बन पर नहीं स्वावलम्बन पर, क्षणिक राहत पर नहीं, अपितु अन्तिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती हैं। रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में संतुलन और तालमेल स्थापित करती है। जो जितना महत्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्व एवं प्राथमिकता देती है। स्वस्थ जीवन जीने हेतु जो अनावश्यक, अनुपयोगी प्रवृत्तियाँ हैं उन पर नियन्त्रण रखने हेतु सचेत करती है। इस प्रकार आधि, व्याधि और उपाधि के संतुलन से समाधि, शांति और स्वस्थता शीघ्र प्राप्त होती है। अतः स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ अन्य चिकित्सा पद्धतियों से अधिक प्रभावशाली होती है। साधन, साध्य एवं सामग्री तीनों पवित्र होते हैं। उपचार से पूर्व रोगी उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के प्रति पूर्ण सावधान रहता है और उसका उपचार अंधेरे में न होने से वह गलत एवं हिंसक दवाओं के सेवन से अपने आपको सहज बचा लेता हैं। अतः जो चिकित्सा पद्धतियाँ जितनी अधिक स्वावलम्बी होती है, रोगी की उसमें उतनी ही अधिक सजगता, भागीदारी होने से वे पद्धतियाँ उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती हैं।