उपचार हेतु रोगी एवं उसके हितेषियों का प्रयास सर्वप्रथम यथा शक्ति, वर्तमान में सर्वमान्य समझी जाने वाली, तुरन्त राहत दिलाने वाली पद्धति से चिकित्सा करवाने का होता है। भले ही जो अच्छी चिकित्सा पद्धति के मापदण्डों पर खरा नहीं उतरती हो? परन्तु कभी-कभी उपचार के बावजूद जब रोग से मुक्ति नहीं मिलती, तब एक के बाद दूसरी चिकित्सा पद्धितियों का आश्रय लेते रोगी को संकोच नहीं होता। परन्तु फिर भी जब रोग का उपचार न होने से वह निराश होकर ऐसी चिकित्सा पद्धति का भी आश्रय लेता है जिस पर उसका पूर्ण विश्वास नहीं, जिसका विज्ञापन नहीं। भले ही वह चिकित्सा के मापदण्डों के अनुरूप हो? प्रायः रोगी चिकित्सक के सामने सर्वप्रथम अपनी लम्बी अन्तर व्यथा सुनाते-सुनाते चिकित्सक से प्रश्न करता हैः-
(1) क्या उस चिकित्सा पद्धति में उसके रोग का इलाज है?
(2) आपने ऐसे कितने रोगियों का उपचार कर स्वस्थ किया है?
(3) मैं कितने दिनों में रोग से मुक्त हो जाऊँगा?
रोगी की ऐसी सजगता प्रशंसनीय है। यदि प्रारम्भ में ही निदान की सत्यता एवं उपचार से पड़ने वाले प्रभाव का स्पष्टीकरण ईमानदारी पूर्वक रोगी अपनी विश्वसनीय चिकित्सा वाले चिकित्सक से पूछने का साहस जुटा लेता तथा डाँक्टर संतोषप्रद उत्तर से उसको संतुष्ट कर दे तो रोगियों पर जाने अनजाने अनावश्यक प्रयोग नहीं हो सकते। अतः रोगी को उपचार करते समय चिकित्सक से रोग का सही कारण क्या हैं? रोग कितना पुराना है? रोग का प्रारम्भ कब क्यों और कैसे हुआ? इसके सहयोगी रोग कौन-कौन से हैं? चिकित्सा द्वारा जो निदान व उपचार किया जा रहा है वह गलत तो नहीं है? उपचार से कोई दुष्प्रभाव की संभावना तो नहीं होगी आदि शंकाओं का समाधान आवश्यक है। मात्र अपनी अज्ञानता के कारण डाँक्टर पर अन्ध श्रद्धा कदापि बुद्धिमानी नहीं होती।