शरीर में विकारों, दोषों, विजातीय अथवा अनुपयोगी तत्त्वों का जमा होकर, शरीर के विभिन्न तन्त्रों के स्वचालित, स्वनियंत्रित कार्यो में अवरोध अथवा असन्तुलन उत्पन्न करना, कोषिकाओं का निश्क्रिय हो जाना, रोग होता है। असंयमित, अनियंत्रित, अविवेकपूर्ण स्वछन्द आचरण के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं का अपव्यय, दुरुपयोग करने से जो विकार उत्पन्न हों, असंतुलन की स्थिति बनती है, वही रोग होता है। शरीर एवं मन की सभी क्रियाएँ, अंग, उपांग, इन्द्रियाँ, तंत्र, अवयव आदि का अपना-अपना कार्य स्वतंत्रता पूर्वक सामान्य रूप से नहीं कर पाना भी रोग कहलाता है। शरीर, मन और आत्मा के अवांछित, विजातीय, अनुपयोगी विकारों का विसर्जन बराबर न होने से पीड़ा, दर्द, वेदना, जलन, सूजन, विघटन, चेतना की शून्यता, तनाव, बैचेनी, भय, चिन्ता, अधीरता, असजगता, गलत दृष्टिकोण व चिन्तन, जीवन के प्रति निराशा आदि के जो लक्षण प्रकट होते हैं, वही मिलकर रोग कहलाते हैं। विकार रोग का सूचक है- अच्छे स्वास्थ्य का अर्थ है, विकार मुक्त अवस्था। रोग का तात्पर्य विकारयुक्त अवस्था यानी जितने ज्यादा विकार उतने ज्यादा रोग। जितने विकार कम उतना ही स्वास्थ्य अच्छा। जब वे विकार शरीर में होते हैं तो शरीर रोगी बन जाता है। परन्तु जब ये विकार मन, भावों और आत्मा में होते हैं तो क्रमशः मन, भाव और आत्मा विकारी अथवा अस्वस्थ कहलाते हैं।