शरीर में जितने रोग अथवा उनके कारण होते हैं उतने हमारे ध्यान में नहीं आते। जितने ध्यान में आते हैं, उतने हम अभिव्यक्त नहीं कर सकते। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वे सारे के सारे चिकित्सक अथवा अति आधुनिक समझी जाने वाली मशीनों एवं रासायनिक परीक्षणों की पकड़ में नहीं आते। जितने लक्षण स्पष्ट रूप से उनकी समझ में आते हैं, उन सभी के अनुरूप दवा उपलब्ध नहीं होती। परिणाम स्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से जांचों में प्रकट होते हैं, उनके अनुसार आज रोगों का नामकरण किया जा रहा है तथा दवा निर्माता दवाईयों का निर्माण करते हैं। अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का ध्येय उन लक्षणों को दूर कर रोगों से तुरन्त राहत पहुँचाने का होता है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ और उनमें कार्यरत चिकित्सक आज असाध्य एवं सक्रामक रोगों के उपचार के जो बड़े-बड़े दावे और विज्ञापन करते हैं, वे कितने भ्रामक, अस्थायी होते हैं, जिस पर पूर्वाग्रह छोड़कर सम्यक् चिंतन करना आवश्यक हैं।
आज हमने उपचार हेतु शरीर को कई टुकड़ों में बांट दिया है। जैसे एक अंग का दूसरे किसी अंग से संबंध ही न हो। आंख का डाँक्टर अलग, कान, नाक, गला, दाँत, हृदय, फेंफड़ा, गुर्दा, मस्तिष्क आदि सभी के विशेषज्ञ डाँक्टर अलग-अलग होते हैं। उपचार करते समय जब तक पूर्ण शरीर, मन व आत्मा को एक इकाई के रूप में स्वीकार न किया जायेगा, तब तक स्थायी प्रभावशाली उपचार एक कल्पना मात्र होगी।
आँख, कान अथवा शरीर का सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग अथवा इन्द्रियाँ मात्र भौतिक उपकरण ही नहीं है, परन्तु उसके साथ जीवन्त चेतना, संवेदनाएँ और मन की स्मृति, कल्पनाएँ, अनुभूति आदि भी जुड़े हैं, उसके ज्ञान के बिना आँख और कान जैसे शरीर के किसी भी भाग की सूक्ष्मतम जानकारी अधूरी ही होती है।
जब निदान ही अधूरा हो, अपूर्ण हो तब प्रभावशाली उपचार के दावे छलावा नहीं तो क्या हैं? अतः उपचार करते समय जो चिकित्सा पद्धतियाँ शारीरिक व्याधियों को मिटाने के साथ-साथ मन व आत्मा के विकारों को दूर करती हैं, उन्हीं चिकित्सा पद्धतियों द्वारा स्थायी एवं प्रभावशाली उपचार संभव हो सकता हैं। अतः जिन्हें स्थायी रूप से रोग मुक्त बनना हो, उन्हें शरीर, मन और आत्मा को रोग ग्रस्त एवं विकारी बनाने वाले सभी कारणों से यथा संभव बचना चाहिये एवं दुष्प्रभावों तथा शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम करने वाले उपचार से दूर रहना चाहिये।