‘‘किसी बात को बिना सोचे समझे स्वीकार करना यदि मूर्खता है तो सत्य को बिना सम्यक् चिन्तन एवं तर्क की कसौटी पर कसे, प्रचार-प्रसार के अभाव में पूर्वाग्रसित गलत धारणाओं के कारण अस्वीकार करने वालों को कैसे बुद्धिमान कहा जा सकता है? जिस प्रकार रत्न की पहचान डाँक्टर, वकील, नेता अथवा सेनापति नहीं कर सकता, उसके लिये जौहरी की दृष्टि चाहिए। ठीक उसी प्रकार शरीर की अनन्त क्षमताओं को समझने के लिये सम्यक् ज्ञान, सम्यम्दर्शन और सम्यक् आचरण आवश्यक होता है।’’
जिस प्रकार बीज बोने से पूर्व खेत की सफाई, हल जोतना, और खाद आदि डालकर भूमि को उपजाऊ बनाना आवश्यक होता है। गिलास में नया पेय भरने से पूर्व उसे खाली करना अनिवार्य होता है, किसी कपड़े को रंगने से पहले पुराना रंग ब्लीचिंग प्रक्रिया द्वारा साफ करना आवश्यक होता है, ठीक उसी प्रकार स्वास्थ्य को समझने के लिए हमारी पूर्वाग्रसित गलत धारणाओं का अनेकान्त दृष्टिकोण से चिन्तन कर निराकरण आवश्यक होता हैं। उसके बिना क्या हेय, क्या ज्ञेय और क्या उपादेय का न तो ज्ञान ही हो सकता है और न हमारी सही प्राथमिकताओं का चयन एवं क्षमताओं का अधिकतम उपयोग।
आज जो निदान के भौतिक साधन उपलब्ध हैं, वे व्यक्ति की मानसिकताओं, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं, आवेगों का विश्लेषण नहीं कर सकते। भय, दुःख, चिन्ता, तनाव, निराशा, अधीरता, पाश्विक वृत्तियाँ, गलत सोच, क्रोध, छल, कपट, तृष्णा, अहं, असन्तोष से होने वाले रासयनिक, परिवर्तनों, को नहीं बतला सकते। भौतिक उपकरण और परीक्षण के तौर-तरीकों से रोगों से पड़ने वाले भौतिक परिवर्तनों का ही पता लगाया जा सकता है, उनके मूल कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता। अतः ऐसा निदान अपूर्ण होता है और उसके आधार पर की गयी चिकित्सा कैसे पूर्ण अथवा वैज्ञानिक होने का दावा कर सकती है। शरीर की पीड़ाओं अथवा निष्क्रियताओं से हम घबरा जाते हैं, उन्हीं को रोग मानते हैं। चेतना का अस्तित्व एवं विकास आधुनिक विज्ञान के कार्यक्षेत्र में नहीं है। आधुनिक चिकित्सा में उपचार भौतिक शरीर तक ही सीमित रहता है। सम्पूर्ण एवं स्थायी स्वास्थ्य के लिए भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी आवश्यक होता है।