क्या शरीर के अंगों में यिन-यांग सिद्धान्त घटित होता है?
संसार की सारी गतिविधियाँ एक-दूसरे के सहयोग एवं नियंत्रण से संचालित होती हैं। प्रायः प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थायें होती है। जन्म और मृत्यु के बीच जीवन। दोनों अंतिम छोर एक-दूसरे के पूरक होते हैं। जैसे दिन-रात, अन्धेरा-प्रकाश, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, पति-पत्नी, ठण्डा-गरम, पोजेटिव-नेगटिव, चुम्बक के उत्तरी और दक्षिणी धु्रव। जिस प्रकार गाड़ी की गति ब्रेक द्वारा नियंत्रित होती है, उसके बिना वाहन का उपयोग नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार शरीर में किसी भी अंग की कार्यप्रणाली पूर्णतया स्वतंत्र नहीं होती। प्रत्येक अंग का पूरक अथवा सहयोगी अंग अवश्य होता है और जब उन सहयोगी अंगों में असंतुलन हो जाता है तो भी रोग की स्थिति बनती हैं। लोम-विलोम अथवा यिन-यांग का सिद्धांत प्रकृति के सनातन नियमों पर आधारित है, परन्तु आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा एवं विभिन्न अन्य चिकित्सा पद्धतियों में यह सिद्धान्त प्रायः गौण होता है। फलतः जो अंग रोगग्रस्त होता है उसी में उसका कारण ढूंढा जाता है तथा उसी अंग के उपचार को प्राथमिकता दी जाती है। जैसे हृदय के रोग में हृदय से, डायबिटीज का उपचार पेन्क्रियाज और दमे का उपचार फेंफड़े के माध्यम से ही किया जाता है। आँख, नाक, कान, हृदय, गुर्दे आदि अंगों के विशेषज्ञ अलग-अलग होते हैं। अतः वे इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि कभी-कभी रोग का कारण यिन-यांग सिद्धांत के अनुसार उसका पूरक अंग भी हो सकता है। हृदय का छोटी आंत, फेंफड़े का बड़ी आंत, तिल्ली व पेन्क्रियाज का आमाशय, गुर्दे का मूत्राशय, लिवर का पित्ताशय और मस्तिष्क का नाड़ी संस्थान पूरक अंग होता है। जैसे किसी व्यक्ति की पत्नी बहुत ज्यादा बीमार है और उसके कारण पति का उदास, तनावग्रस्त अथवा दुःखी हो जाना स्वाभाविक है। यदि पति का तनाव एवं दुःख मिटाना है तो पत्नी को रोगमुक्त करना होगा। पत्नी को रोग मुक्त किये बिना पति तनावमुक्त नहीं हो सकता अन्यथा उस बुढि़या वाली कथा चरितार्थ हो जावेगी जिसकी सुई तो घर में गुम हो गई है, परन्तु घर में अंधेरा होने के कारण वह बाहर प्रकाश में ढूंढती है। उसी प्रकार कभी-कभी रोग का कारण कुछ और होता है लेकिन निदान एवं उपचार कुछ और किया जाता है। ऐसा करने से समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? परिणामस्वरूप हृदय, मधुमेह, अस्थमा जैसे अनेक रोगों को आधुनिक चिकित्सा पद्धति असाध्य मानती है। जीवन भर रोगी को दवा पर आश्रित होना पड़ता है। ऐसे लगभग 50 प्रतिशत से अधिक व्यक्ति यिन-यांग को संतुलित करने से ठीक हो जाते हैं। अन्य स्वावलंबी चिकित्सा में उनका प्रभावशाली स्थायी उपचार सम्भव होता है तथा रोगी को दवा पर आश्रित नहीं रहना पड़ता।