रोग जहां उत्पन्न होता है और जिन परिस्थितियों में पैदा होता है, उसका उपचार उसी स्थान पर उपलब्ध पदार्थो में समाहित होता है तथा रोग में उत्पन्न परिस्थितियों को बदल कर सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
शरीर में विजातीय तत्त्वों अथवा विकारों के बढ़ने से, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाने से शरीर में रोग पैदा होता है। अतः जब तक विजातीय तत्त्वों को न हटाया जाये, शरीर में निश्क्रिय कोषिकाओं में वृद्धि होने से तथा भविष्य में बनने से न रोका जाये, निश्क्रिय कोषिकाओं को सक्रिय न किया जाये तथा षरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता को न बढ़ाया जाये तब तक स्थायी स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता।
शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा और आलम्बन विकसित कर दिया जाता है तो उपचार अधिक प्रभावशाली, स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है।
शरीर का विवेक पूर्ण सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता है। उपचार में रोगी की भागीदारी मुख्य होती है। अतः रोगी उपचार से पड़ने वाले प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है, जिससे दुष्प्रभावों की सम्भावना प्रायः नहीं रहती। ये उपचार बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्म विश्वास से स्वयं कर सकता हैं।
आरोग्य शास्त्र में तन, मन और चित्त तीनों का एक साथ उपचार होता है, अर्थात् समग्रता से विचार किया जाता है। शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति कम न हो, कर्म बन्धनों से आत्मा विकारी न बने, इस बात को प्राथमिकता दी जाती है जबकि रोग शास्त्र में रोग के मूल कारणों की अपेक्षा, उससे पड़ने वाले प्रभावों को शांत करने का प्रयास किया जाता है, जिससे रोगी को तुरन्त राहत कैसे मिले, मुख्य ध्येय होता है, भले ही उसके दुष्प्रभाव होते हों। आरोग्य शास्त्र पर आधारित है- ‘‘स्वावलंबी अहिंसक उपचार’’ और रोग शास्त्र पर आधारित होती है- ‘‘अहिंसा की उपेक्षा करने वाली परावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ।’’ यही स्वावलंबी चिकित्सा का मौलिक आधार होता है। परावलंबन बंधन है फिर वह चाहे दवा का हो या डाँक्टर का।