क्या निदान में सहयोगी रोगों की उपेक्षा उचित है?
यदि हमारे शरीर के किसी भाग में कोई तीक्ष्ण वस्तु जैसे पिन,सुई, कांटा आदि चुभे तो सारे शरीर में छटपटाहट हो जाती है। आँखों में पानी आने लगता है, मुंह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ और मन अपना कार्य रोक कर क्षण भर के लिए उस स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। उस समय न तो मधुर संगीत सुनना ही अच्छा लगता है और न मनभावन सुन्दर दृश्यों को देखना। न हंसी-मजाक अच्छी लगती है और न अपने प्रियजन से बातचीत अथवा अच्छे से अच्छा खाना, पीना आदि। हमारा सारा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है, हम राहत अनुभव करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे चुभन हो या आंखों में कोई बाह्य कचरा चला जाये अथवा भोजन करते समय गलती से भोजन का कोई अंश भोजन नली की बजाय श्वास नली में चला जायें तो शरीर तुरन्त प्रतिक्रिया कर उस समस्या का प्राथमिकता से निवारण करता है। जिस शरीर में इतना आपसी सहयोग, समन्वय, तालमेल एवं अनुशासन हो अर्थात् शरीर के किसी भाग में पीड़ा अथवा दुःख से सारा शरीर दुःखी हो तो क्या ऐसे शरीर में छोटे-मोटे रोग पनप सकते हैं? वास्तव में अप्राकृतिक जीवन जीने के कारण शरीर की रोग प्रतिकारात्मक क्षमता क्षीण होने लगती है। परिणामस्वरूप शरीर में सैंकड़ों अप्रत्यक्ष रोग अन्दर ही अन्दर पनपने लगते हैं, जिनकी तरफ हमारा ध्यान प्रायः नहीं जाता है और हम उन रोगों के कारणों की पूर्ण उपेक्षा करने लगते हैं। चिकित्सकों द्वारा जिन लक्षणों के आधार पर रोगों का निदान और नामकरण किया जाता है, वे अकेले रोग नहीं होते, अपितु रोगों के परिवार के नेता होते हैं, जिन्हें सैंकड़ों अप्रत्यक्ष सहायक रोगों का समर्थन प्राप्त होता है, परन्तु आज के चिकित्सकों का प्रायः अप्रत्यक्ष रोगों की तरफ ध्यान ही नहीं जाता और न वे सहायक रोगों को रोग मानते हैं। उपचार करते और करवाते समय हमारा सारा प्रयास बाह्य लक्षणों को दूर कर नामधारी रोगों से राहत पाने का ही होता है।
आज स्वास्थ्य विज्ञान में लक्षणों के अनुसार रोगों के अलग-अलग नाम देकर उनकी व्याख्यायें की जा रही हैं। शरीर को टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित कर उपचार और निदान किया जा रहा है। पूर्ण शरीर पर पड़ने वाले रोग के प्रभावों की उपेक्षा के कारण निदान और उपचार आंशिक एवं अधूरा ही हो सकता हैं। रोग के मूल कारणों को गौण किया जा रहा है। मानों पेड़ को सुरक्षित रखने के लिये उसकी जड़ को सींचने की बजाय फूल, पत्तों को पानी दिया जा रहा है। जनतंत्र में नेता को हटाने का एक उपाय है। जिस सहयोग और समर्थन से उसका चयन होता है उसकी ठीक विपरीत प्रक्रिया (असहयोग एवं विरोध) द्वारा उसको हटाया जा सकता है। बिना समर्थकों को अलग किये, जैसे नेता को बदलना सरल नहीं, उसी प्रकार रोग में अप्रत्यक्ष सहयोगियों की उपेक्षा कर रोग से पूर्ण रूप से मुक्त करने का दावा खोखला लगता है। ऐसा निदान और उपचार अधूरा ही होता है।