अच्छे स्वास्थ्य के मापदण्ड – स्वस्थ कौन?
स्वस्थ का अर्थ होता है स्व में स्थित हो जाना। अर्थात् स्वयं पर स्वयं का नियन्त्रण, पूर्ण अनुशासन एवं रोग-मुक्त जीवन। स्वास्थ्य का अर्थ होता है-विकारमुक्त अवस्था। रोग का तात्पर्य विकारयुक्त अवस्था यानी जितने ज्यादा विकार उतने ज्यादा रोग। जितने विकार कम उतना ही स्वास्थ्य अच्छा। विकार का मतलब अनुपयोगी, अनावश्यक, व्यर्थ, विजातीय तत्त्व होता है। जब ये विकार शरीर में होते हैं तो शरीर रोगी बन जाता है परन्तु जब ये विकार मन, भावों और आत्मा में होते हैं तो क्रमशः मन, भाव और आत्मा विकारी अथवा अस्वस्थ कहलाती हैं। विकारी अवस्था का मतलब है विभाव दशा अथवा विपरीत स्थिति। जितने-जितने विकार, उतनी-उतनी विभाव दशा।
स्वस्थता तन, मन और आत्मोत्साह के समन्वय का नाम है। जब शरीर, मन, इन्द्रियाँ और आत्मा ताल-से-ताल मिला कर सन्तुलन से कार्य करते हैं, तब ही अच्छा स्वास्थ्य कहलाता है। इस स्थिति में जब शरीर की समस्त प्रणालियाँ एवं सभी अवयव स्वतन्त्रतापूर्वक अपना-अपना कार्य करें, किसी के भी कार्य में, किसी भी प्रकार का अवरोध, आलस्य अथवा निष्क्रियता न हों तथा न उनको चलाने हेतु किसी बाह्य दवा अथवा उपकरणों की आवश्यकता पड़े। मन और पाँचों इन्द्रियाँ सशक्त हों, स्मरण शक्ति अच्छी हों, क्षमताओं का ज्ञान हों, विवेक जागृत हों, लक्ष्य सही और विकासोन्मुख हों। जीवन स्थायी आनन्द, शान्ति, प्रसन्नता बढ़ाने वाला हों, न कि तनाव, चिन्ता, निराशा, भय, अनैतिकता, हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, तृष्णा आदि दुःख के कारणों को बढ़ाने वाला हों। प्राथमिकताएँ सही हों एवं उसके अनुरूप संयमित, नियमित, नियन्त्रित जीवन-चर्या हों। आवश्यक की क्रियान्विति और अनावश्यक की उपेक्षा का स्वविवेक हों, मन का चिन्तन और आचरण सम्यक् एवं संयमित हों, मन में बेचैनी न हों, इन्द्रियों की विषय-विकारों में आसक्ति न हों, समस्त प्रवृत्तियाँ सहज और स्वाभाविक हों, अस्वाभाविक न हों अर्थात् जिसका पाचन और श्वसन बराबर हों, सन्तुलित हों, अनुपयोगी अनावश्यक विजातीय तत्त्वों का शरीर से विसर्जन सही हों, भूख प्राकृतिक लगती हों, निद्रा स्वाभाविक आती हों, पसीना गन्ध-हीन हों, त्वचा मुलायम हों, बदन गठीला हों। सीधी कमर, खिला हुआ चेहरा और आँखों में तेज हो। नाड़ी, मज्जा, अस्थि, प्रजनन, लासिका, रक्त परिभ्रमण आदि तंत्र शक्तिशाली हों तथा अपना कार्य पूर्ण क्षमता से करने में सक्षम हों। जो निस्पृही तथा निरंहकारी हो। जो आत्म-विश्वासी, दृढ़ मनोबली, सहनशील, धैर्यवान, निर्भय, साहसी और जीवन के प्रति उत्साही हो। जिसके सभी कार्य समय पर होते हों तथा जीवन नियमबद्ध हो। जो पूर्ण स्वस्थ एवं संतुलित होता है, उसके शरीर से स्वाभाविक सुगंध आती है, स्वास्थ्य, मन, वचन और काया के संतुलित समन्वय का नाम है, जो ऐसी वस्तु नहीं है जिसे बाजार से खरीदा जा सके अथवा किसी से उधार लिया जा सके, या चुराया जा सके।
आत्मा के बिना न तो शरीर का अस्तित्व होता है, न मन व वाणी ही चेतना की अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। अतः जब तक आत्मा अपनी शुद्धावस्था को प्राप्त नहीं होती है, हम किसी न किसी रोग से अवश्य पीडि़त होते हैं अर्थात् निरोग नहीं बन सकते। शारीरिक रूप से यदि शरीर तंत्र अपने लिये आवश्यक एवं वाछिंत तत्त्वों का पुनःनिर्माण तथा अवाछिंत और विजातीय तत्त्वों का निष्कासन का कार्य सुचारू रूप से करता रहे तो मनुष्य निरोग एवं स्वस्थ रह कर दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।
वास्तव में पूर्ण स्वस्थता के मापदण्ड तो यही होते हैं। जितने-जितने अंशों में उपरोक्त तथ्यों की प्राप्ति होती है उसी अनुपात में व्यक्ति स्वस्थ होता है। इसके विपरीत स्थिति पैदा होने पर अपने आपको स्वस्थ मानना अथवा पूर्ण स्वस्थ बनाने का दावा करना न्याय संगत नहीं माना जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं की स्थिति का अवश्य आंकलन करना चाहिए। जो-जो बातें उसके स्वयं के नियन्त्रण में होती है, उसके अनुरूप अपनी जीवनशैली बनाने का प्रयास करना चाहिए।
जीवन में सभी को सदैव सभी प्रकार की अनुकूलताएँ प्रायः नहीं मिलती परन्तु अधिकांश प्रतिकूल परिस्थितियों को सकारात्मक चिन्तन, मनन एवं सम्यक् आचरण द्वारा अपने अनुकूल बनाया जा सकता है, यही स्वास्थ्य का मूल सिद्धान्त और स्वस्थ जीवन की आधारशिला होती है।