उपचार हेतु रोग-प्रतिकारात्मक क्षमता सुदृढ़ होना आवश्यक
आधुनिक चिकित्सा पद्धति रोग का मुख्य कारण शरीर में वायरस अथवा रोग के कीटाणुओं को मानती है। यदि इस तथ्य को ही पूर्ण सत्य मान लिया जाये तो गन्दी बस्तियों में रहने वाले, गांव और शहर में रोजाना गन्दगी की सफाई करने वाले हमारे हरिजन भाई तथा अस्पतालों में रोगियों की सेवा करने वाले डाँक्टर, नर्सेज एवं परिजन सदैव रोगग्रस्त ही होने चाहिये। इसके विपरीत स्वच्छ वातावरण में रहने वाले कभी रोगग्रस्त नहीं होने चाहिये। मानव अनन्त शक्तिशाली प्राणी है। उसमें अनन्त क्षमता और ऊर्जा होती है। जिस प्रकार लाखों चूहे मिलकर किसी शेर को परेशान नहीं कर सकते, उसी प्रकार यदि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी हो तो वायरस और कीटाणु उसका क्या बिगाड़ सकते हैं? परन्तु जिस प्रकार यदि शेर को अपनी क्षमता पर विश्वास न हों, वह प्रमाद अथवा आलसी हो या गहरी निद्रा में असजगता से सोया हुआ हों तो निश्चित रूप से चूहे उसको परेशान कर सकते हैं। जागृत अवस्था में वे उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। ठीक उसी प्रकार जिसकी रोग प्रतिकारात्मक क्षमता अच्छी हो, उन्हें परेशानी नहीं हो सकती। परन्तु यदि शरीर की रोग प्रतिकारात्मक क्षमता अच्छी न हो तो वायरस और कीटाणु अवश्य परेशानी पैदा कर सकते हैं। शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति रोगों से हमारी रक्षा करती है। वह शक्ति क्यों क्षीण होती है? उसको क्षीण करने में गर्भावस्था से ही ली जाने वाली आधुनिक दवाइयों, इंजेक्शनों और टीकाकरण से पड़ने वाले दुष्प्रभावों की अहम् भूमिका होती है। स्वविवेक एवं चिन्तन मंद हो जाता है तथा मनोबल, धैर्य, सहनशीलता घटने लगती है। जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है, उसका वायरस और बैक्टीरिया क्या कुछ बिगाड़ सकते हैं?अर्थात् वे उसे रोगी नहीं बना सकते।