शरीर में संचालक अंग की भूमिका
शरीर में संचालक अंग की भूमिका
(Involvement of Governing Organ of Body)
मनुष्य की जन्म तिथी के समय जिस मेरेडियन में प्राण ऊर्जा का प्रवाह प्रकृति से सर्वाधिक होता है, उससे संबंधित अंग ही प्रायः उस व्यक्ति का प्रमुख संचालक अंग होता है। जब तक वह अंग पूर्ण रुपेण स्वस्थ रहता है, अन्य रोग उसे मृत्यु तक नहीं पहुँचा सकते। परन्तु उस अंग में प्राण ऊर्जा का असंतुलन काफी हानिकारक हो सकता है। मनुष्य की मृत्यु का कारण भी प्रायः उस अंग में प्राण ऊर्जा के प्रवाह का असंतुलन ही होता है।
इसी कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु हृदय रोग से होती है तो कोई गुर्दे, लीवर, फेंफड़े, तिल्ली आदि के रोगों से मृत्यु को प्राप्त होता है। चन्द व्यक्ति प्रथम हृदय आघात में ही चले जाते हैं, क्योंकि उनका संचालक अंग हृदय ही होता है। परन्तु बहुत से व्यक्ति तीन चार बार हृदय आघात आने के पश्चात् भी बच जाते हैं, क्योंकि उनका संचालक अंग दूसरा होता है। मृत्यु के समय सबसे पहले संचालक अंग अपना कार्य करना बन्द करता है, उसके पश्चात् हृदय तथा अन्य अंग। जिस प्रकार सेनापति के हारते ही सेना हार जाती है, उसी प्रकार संचालक अंग की शरीर में प्रभावी भूमिका होती है। अतः जब रोगी मूच्र्छित हो जाये अथवा उसके रोग का निदान संभव न हो, तब सर्व प्रथम संचालक अंग को, ठीक करने को प्राथमिकता देनी चाहिये। साथ ही किसी भी रोग का उपचार करते समय संचालक अंग के संतुलन का विशेष खयाल रखना चाहिये, जिससे उपचार अधिक प्रभावशाली हो जाता है। अमेरिका के डाँक्टर ब्लेट के अनुसार शरीर की बारह प्रमुख मेरेडियनों में लगभग एक मास तक प्रत्येक मेरेडियन में अन्य मेरेडियनों की अपेक्षा प्राण ऊर्जा का प्रवाह अधिक होता है। पृथ्वी एक साल में सूर्य का पूरा चक्कर लगा लेती है। पृथ्वी की सूर्य से अलग-अलग दूरी के अनुसार ही मौसम बनते हैं और पंच ऊर्जाओं को घटाते अथवा बढ़ाते है। इसी के अनुरूप पंच ऊर्जाओं से संबंधित अंगों की मेरेडियन में भी प्राकृतिक ऊर्जा का प्रवाह प्रभावित होता है, जिसका क्रम निम्नानुसार होता है।
क्रम सं. अंग का नाम अधिक ऊर्जा प्रवाहित होने का समय
1. यकृत मेरेडियन- 8 जनवरी से 6 फरवरी के लगभग
2. फेंफड़े- 7 फरवरी से 8 मार्च के लगभग
3. बड़ी आंत- 9 मार्च से 8 अप्रेल के लगभग
4. आमाशय- 9 अप्रेल से 7 मई के लगभग
5. स्पलीन- 8 मई से 7 जून के लगभग
6. हृदय- 8 जून से 7 जुलाई के लगभग
7. छोटी आंत- 8 जुलाई से 7 अगस्त के लगभग
8. मूत्राशय मेरेडियन- 8 अगस्त से 7 सितम्बर के लगभग
9. गुर्दा- 8 सितम्बर से 7 अक्टूबर के लगभग
10. पेरिकार्डियन- 8 अक्टूबर से 7 नवम्बर के लगभग
11. त्रिअग्नि- 8 नवम्बर से 7 दिसम्बर के लगभग
12. पित्ताशय- 8 दिसम्बर से 7 जनवरी के लगभग
उपरोक्त तालिका प्रायः सर्वत्र एक समान नहीं होती। स्थानीय भोगोलिक परिस्थितियों के अनुसार समय में आंशिक परिवर्तन हो सकता है। अतः इसे मात्र मार्गदर्शक के रूप में ही स्वीकारना चाहिए।
उपरोक्त तालिका के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की जन्म तिथि एक ही समूह के यिन-यांग अंगों के ठीक मध्य में होती है जैसे-8 (जनवरी, मार्च, मई, जुलाई, सितम्बर और नवम्बर) के आस पास का समय तब तो निश्चित रूप से उसी ऊर्जा का असंतुलन व्यक्ति के मृत्यु का मुख्य कारण होता है।
परन्तु यदि जन्म तिथि दूसरे समूह के यिन-यांग के आसपास होती है, जैसे 8 (फरवरी, अप्रेल, जून, अगस्त, अक्टूबर, दिसम्बर) तब प्रमुख संचालक अंग को मालूम करने के लिये दोनों अंगों की ऊर्जाओं के प्रभाव के अनुसार आंकलन करना पड़ता है। प्रारम्भ के दिनों में उस ऊर्जा का प्रभाव बढ़ता है, जो अधिकतम स्थिति तक पहुंच, पुनः कम होते हुए, क्रम में अगली मेरेडियन में बढ़ने लगता है। कहने का तात्पर्य यहीं है कि, जिस समय जिस अंग में प्राण ऊर्जा का विशेष प्रवाह होता है, उस समय शरीर की गतिविधियों में उस अंग की प्रभावशाली भूमिका होती है। अतः संचालक अंग के साथ-साथ उस अंग की ऊर्जा संतुलन को भी प्राथमिकता देनी चाहिये।