(1)स्वास्थ्य हेतु सम्यक् चिन्तन आवश्यक
हमारा शरीर हमारे लिए दुनियाँ की सर्वश्रेष्ठ निधि हैं।अमूल्य अंगों, उपांगों, इन्द्रियों, मन, मस्तिष्क और विभिन्न अवयवों द्वारा निर्मित मानव जीवन का संचालन और नियन्त्रण कौन करता है? यह आज भी वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विज्ञान के विकास एवं लम्बे- चोड़े दावों के बावजूद शरीर के लिए आवश्यक रक्त, वीर्य, मज्जा, अस्थि जैसे अवयवों का उत्पादन तथा अन्य अंगों, इन्द्रियों का निर्माण आज तक सम्भव नहीं हो सका। मानव शरीर में प्रायः संसार में उपलब्ध अधिकांश यंत्रों से मिलती-जुलती प्रक्रियाएँ होती है। मानव मस्तिष्क जैसा सुपर कम्प्यूटर, आँ खों जैसा केमरा, हृदय जैसा अनवरत चलने वाला पम्प, कान जैसी श्रवण व्यवस्था, आमाशय जैसा रासायनिक कारखाना आदि एक साथ अन्यत्र मिलना प्रायः बहुत दुर्लभ है। उससे भी आश्चर्यजनक बात तो यह है कि सारे अंग, उपांग, मन और इन्द्रियों के बीच आपसी तालमेल। यदि कोई तीक्ष्ण पिन, सुई अथवा काँच आदि शरीर के किसी भाग में चुभ जाए तो सारे शरीर में कंपकंपी हो जाती है। आँखों से आँसू और मुँह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ एवं मन क्षण भर के लिए अपना कार्य रोक शरीर के उस स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। उस समय न तो मधुर संगीत अच्छा लगता है और न ही मन-भावन दृश्य। न हँसी मजाक में मजा आता है और न खाना-पीना भी अच्छा लगता है। मन जो दुनियाँ भर में भटकता रहता है, उस स्थान पर अपना ध्यान केन्द्रित कर देता है। हमारा सारा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है, हम राहत का अनुभव करते हैं। जिस शरीर में इतना आपसी सहयोग, समन्वय, समर्पण, अनुशासन और तालमेल हो अर्थात् शरीर के किसी एक भाग में दर्द, पीड़ा और कष्ट होने की स्थिति में सारा शरीर प्रभावित हो तो क्या ऐसे स्वचलित, स्वनियन्त्रित, स्वानुशासित शरीर में असाध्य एवं संक्रामक रोग पैदा हो सकते हैं? चिन्तन का प्रश्न है।
(2) शरीर में स्वयं को स्वस्थ रखने की क्षमता होती है
हम एक साधारण मशीन बनाते हैं उसको भी खराब होने से बचाने के लिए उसमें आवश्यक सुरक्षात्मक प्रबन्ध करते हैं। तब विश्व के सर्वश्रेष्ठ मानव शरीर रूपी यंत्र में रोग से बचने हेतु आवश्यक सुरक्षा व्यवस्था न हो कैसे सम्भव है? मानव जीवन अनमोल है, अतः उसका दुरुपयोग न करें। वर्तमान की उपेक्षा भविष्य में परेशानी का कारण बन सकती है। वास्तव में हमारे अज्ञान,अविवेक, असंयमित, अनियंत्रित, अप्राकृतिक जीवन चर्या के कारण जब शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता से अधिक शरीर में अनुपयोगी, विजातीय तत्त्व और विकार पैदा होते हैं तो शारीरिक क्रियाएँ पूर्ण क्षमता से नहीं हो पाती, जिससे धीरे-धीरे रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। अनेक रोगों की उत्पत्ति के पश्चात् ही कोई रोग हमें परेशान करने की स्थिति में आता है। उसके लक्षण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट होने लगते हैं। शरीर में अनेक रोग होते हुए भी किसी एक रोग की प्रमुखता हो सकती है। अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँ, उसके आधार पर रोग का नामकरण, निदान और उपचार करती है। प्रायः रोग के अप्रत्यक्ष और सहयोगी कारणों की उपेक्षा के कारण उपचार आंशिक एवं अधूरा ही होता है। सही निदान के अभाव में उपचार हेतु किया गया प्रयास लकड़ी जलाकर रसोई बनाने के बजाय मात्र धुआँ करने के समान होता है, जो भविष्य में असाध्य रोगों के रूप में प्रकट होकर अधिक कष्ट, दुःख और परेशानी का कारण बन सकते हैं।
प्रकृति का सनातन सिद्धान्त है कि जहां समस्या होती है उसका समाधान उसी स्थान पर होता है। दुर्भाग्य तो इस बात का है कि स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रायः व्यक्ति आत्म-विष्लेषण नहीं करता। गलती स्वयं करता है और दोष दूसरों को देता है। रोग का समाधान स्वयं के पास है और ढूँढता है डॉक्टर और दवाइयों में। परिणामस्वरूप समस्याएँ सुलझने की बजाय उलझने लगती हैं। रोग से उत्पन्न दर्द, पीड़ा, कष्ट संवेदनाओं की जितनी अनुभूति स्वयं रोगी को होती है, उतनी सही स्थिति कोई भी यंत्र और रासायनिक परीक्षणों द्वारा मालूम नहीं की जा सकती। दवा और डॉक्टर तो उपचार में मात्र सहयोगी की भूमिका निभाते हैं, उपचार तो शरीर के द्वारा ही होता है। अतः जो चिकित्सा जितनी ज्यादा स्वावलम्बी होती है,रोगी की उसमें उतनी ही अधिक सजगता, भागीदारी एवं सम्यक् पुरुशार्थ होने से प्रभावशाली होती है।
(3) स्वावलंबी एवं परावलंबी चिकित्सा पद्धतियों में अन्तर
चिकित्सा पद्धतियों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम तो बिना दवा उपचार वाली स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ तथा दूसरी दवाओं के माध्यम से उपचार वाली परावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ। स्वयं द्वारा स्वयं का उपचार कर स्वस्थ होने की विधि को स्वावलंबी चिकित्सा कहते हैं। इसमें यथा सम्भव दवा एवं चिकित्सक पर निर्भर रहने की आवष्यकता नहीं रहती। बिना किसी जीव को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कष्ट पहुंचाए सहज रूप से उपलब्ध पूर्णतः अहिंसक एवं दुष्प्रभावों से रहित साधनों का सहयोग लिया जाता है। इसमें शरीर, मन और आत्मा में जो जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्त्व एवं प्राथमिकता दी जाती है। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों की उपेक्षा नहीं हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है।
ऐसा उपचार करते समय आवश्यक होता है कि रोगी स्वयं की क्षमताओं के प्रति सजग हो, रोग के मूल कारणों को समझ उनसे बचने हेतु आवश्यक जीवन शैली का सम्यक् आचरण करे। रोग में स्वयं की भूमिका का सही चिन्तन हो तथा ऐसे उपचार की उपेक्षा करे जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम करते हों, दुष्प्रभाव पैदा कर भविष्य में अधिक परेशानी पैदा करते हों। रोग के कारणों को दूर किए बिना मात्र राहत दिलाते हों, उपचार हिंसा, क्रूरता, निर्दयता को प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रोत्साहन देते हों, जिससे मन और आत्मा के विकार बढ़ते हैं।
(4) स्वावलंबी उपचार कितना सरल?
हम साल के365दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियन को प्रायः8से10बार से अधिक नहीं बुलाते।355दिन जैसे स्वीच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है। उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने, कब और कहाँ किया? बिजलीघर से बिजली कैसे आती है? बिजली कैसे कार्य करती है? बिजली का प्रवाह क्यों, कैसे और कितना हो रहा है? वोल्टेज, करेन्ट ओर फ्रिक्वेन्सी कितनी है? बिजली का स्वीच चालू कर उपयोग लेने हेतु बिजलीघर से स्वीकृती लेने की भी हर समय आवश्यकता नहीं होती है। मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं अपने आपको स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुष्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है।
ऐसी सहज, सरल, स्वाभाविक, सस्ती, सर्वत्र सभी समय, सभी के लिये सुलभ पूर्ण अहिंसक, दुष्प्रभावों से रहित, शरीर मन और आत्मा के विकारों को दूर करने में सहायक प्रभावशाली स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियों का सरल भाषा में विस्तृत विवेचन है इस वेबसाइट में।
(5) आरोग्य एवं रोग शास्त्र में अन्तर
आरोग्य शास्त्र में तन, मन और चित्त तीनों का एक साथ उपचार होता है, अर्थात् समग्रता से विचार किया जाता है, शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति कम न हों, कर्म बन्धनों से आत्मा विकारी न बनें, इस बात को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि रोग शास्त्र में रोग के मूल कारणों की अपेक्षा, उससे पड़ने वाले प्रभावों को शांत करने का प्रयास किया जाता है, जिससे रोगी को तुरन्त राहत कैसे मिलें, मुख्य ध्येय होता है, भले ही उसके दुष्प्रभाव होते हों? आरोग्य शास्त्र पर आधारित है-”स्वावलम्बी अहिंसक उपचार” और रोग शास्त्रपर आधारित होती हैं-”अहिंसा की उपेक्षा करने वाली परावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ। स्वावलम्बी चिकित्सा का मौलिक आधार होता है-”परावलंबन बंधन है, फिर वह बंधन दवा का हो या डॉक्टर का।”
(6) अच्छे स्वास्थ्य हेतु मूलभूत आवष्यकताएं
अच्छे स्वास्थ्य के लिए नियमित स्वाध्याय, ध्यान, शुभ भावनाओं का सम्यक् चिन्तन, अनासक्ति एवं निस्पृही, जीवनचर्या, सम्यक्, ज्ञान, सम्यक् दर्षन एवं सम्यक् आचरण में प्रवृत्ति का अभ्यास, संयमित, नियमित, परिमित जीवन शैली, मौसम के अनुकूल, सात्त्विक पौष्टिक खान-पान, शुद्ध प्राणवायु का अधिकाधिक सेवन, स्वच्छ हवा एवं धूप वाला आवास एवं क्रिया स्थल, नियमित आसन, प्राणायाम, व्यायाम, निद्रा, उपवास, स्वास्थ्य के अनुकूल दिनचर्या आवष्यक होती है।
(7) रोग के विभिन्न प्रभाव एवं लक्षण
रोग स्वयं की गलतियों से उत्पन्न होता है, अतः उपचार में स्वयं की सजगता और सम्यक् पुरुशार्थ आवश्यक होता है। जब तक रोगी रोग के कारणों से नहीं बचेगा, उसकी गम्भीरता को नहीं स्वीकारेगा तब तक पूर्ण स्वस्थ कैसे हो सकेगा? रोग प्रकट होने से पूर्व अनेकों बार अलग-अलग ढंग से चेतावनी देता है परन्तु रोगी उस तरफ ध्यान ही नहीं देता। इसी कारण उपचार एवं परहेज के बावजूद चिकित्सा लम्बी, अस्थायी, दुश्प्रभावों वाली हो तो भी आश्चर्य नहीं? अतः रोग होने की स्थिति में रोगी को स्वयं से पूछना चाहिये कि उसको रोग क्यों हुआ? रोग कैसे हुआ? कब ध्यान में आया? रोग से उसकी विभिन्न, शारीरिक प्रक्रियाओं तथा स्वभाव में क्या परिवर्तन हो रहे हैं? इस बात की जितनी सूक्ष्म जानकारी रोगी को हो सकती है, उतनी अन्य को नहीं। उसके मल के रंग, बनावट व गंध में तो परिवर्तन नहीं हुआ? कब्जी, दस्त या गैस की शिकायत तो नहीं हो रही है? पेशाब की मात्रा एवं रंग और स्वाद में बदलाव तो नहीं हुआ? भूख में परिवर्तन, प्यास अधिक या कम लगना, अनिद्रा या निद्रा और आलस्य ज्यादा आना, पांच इन्द्रियों के विषयों रंग, स्वाद, स्पर्श, श्रवण, वाणी एवं दृश्टि की क्षमताओं में तो कमी नहीं आयी? रुचि-अरुचि में विशेष परिवर्तन तो नहीं हुआ? श्वसन में कोई अवरोध तो नहीं हो रहा है? स्वभाव में चिड़चिड़ापन, निराशा, क्रोध, भय, अधीरता, घृणा, क्रूरता, तनाव, अशान्ति तो नहीं बढ़ रही है? आलस्य एवं थकान की स्थिति तो नहीं बन रही है। दर्द कब, कहां और कितना होता है? क्या चोंबीसों घंटे दर्द एकसा रहता है? सर्वाधिक और निम्नतम दर्द कब होता है? मन में संकल्प विकल्प कैसे आ रहे हैं, इत्यादि सारे रोग के लक्षण हैं। उपचार के तुरन्त पड़ने वाले प्रभाव की सूक्ष्मतम जानकारी रोगी की सजगता से ही प्राप्त हो सकती है तथा इन सभी लक्षणों में जितना-जितना सुधार और संतुलन होगा उतना ही उपचार स्थायी और प्रभावशाली होता है। मात्र रोग के बाह्य लक्षणों के दूर होने अथवा पीड़ा और कमजोरी से राहत पाकर अपने आपकों स्वस्थ मानने वालों को पूर्ण उपचार न होने से नये-नये रोगों के लक्षण प्रकट होने की संभावना बनी रहती है।
(8) वर्तमान में जनसाधारण का सोच
जनसाधारण किसी बात को तब तक स्वीकार नहीं करता, जब तक उसे आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रमाणित और मान्य नहीं कर दिया जाता। परन्तु चिकित्सा के क्षेत्र में आधुनिक चिकित्सकों की सोच आज भी प्रायः शरीर तक ही सीमित होती है। मन एवं आत्मा के विकारों को दूर कर मानव को पूर्ण स्वस्थ बनाना उनके सामथ्र्य से परे होता है। फलतः आधुनिक चिकित्सा में प्राथमिकता रोगी के रोग से राहत की होती है और उसके लिए हिंसा,अकरणीय, अन्याय, अवर्जित, अभक्ष्य का विवेक उपेक्षित एवं गौण होता है। अतः ऐसा आचरण कभी-कभी प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों के विपरीत होने के कारण, उपचार अस्थायी, दुष्प्रभावों की सम्भावनाओं वाला भी हो सकता है। वास्तव में जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ, शक्तिशाली, ताकतवर, रोगमुक्त बनाने के साथ-साथ मन को संयमित, नियन्त्रित, अनुशासित और आत्मा को निर्विकारी, पवित्र एवं शुद्ध बनाती है- वे ही चिकित्सा पद्धतियाँ स्थायी प्रभावशाली एवं सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति होने का दावा कर सकती है।
आज भौतिक विज्ञान के चमत्कारों से प्रभावित अधिकांष व्यक्ति वैज्ञानिक तथ्यों को ही सुनना, मानना, समझना और ग्रहण करना पसंद करते हैं, भले ही वे विज्ञान के मौलिक सिद्धान्तों से अपरिचित ही क्यों न हों। इसी कारण आज सनातन सिद्धान्तों की उपेक्षा विज्ञान के नाम पर हो रही है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान भी आज भ्रामक विज्ञापनों एवं मायावी आंकड़ों से प्रभावित हो रहा हैं।
(9) विज्ञान क्या है?
विज्ञान का मतलब है विशिष्ठ ज्ञान, जो क्रमबद्ध एवं सूत्रबद्ध ढंग से प्राप्त किया जायें अथवा विज्ञान ज्ञान प्राप्त करने की वह विधि है, जिसमें तार्किक विधियों एवं प्रयोगों अथवा चेतना की अनुभूतियों के आधार पर सत्य के निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है।
किसी भी वस्तु के सूक्ष्मावलोकन व विश्लेषण से प्राप्त यथार्थ ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब ऐसी क्षमता से कार्य करना होता है, जिसमें कम से कम निवेश में लाभ अधिक से अधिक हो तथा हानि और दुष्प्रभाव भी कम से कम हो। सत्य की खोज का नाम विज्ञान है अर्थात् विज्ञान का मतलब पूर्ण ज्ञान, सम्यक् ज्ञान होता है। विज्ञान सत्य को स्वीकारता है और झूठ को नकारता है। उसका एकमात्र आग्रह पूर्ण सत्य पर होता है। जैसे-जैसे आंशिक अथवा अधूरे सत्य की पोल खुलने लगती है, वर्तमान की वैज्ञानिक मान्यता को भविष्य में अवैज्ञानिक करार दे दिया जाता है अर्थात् जो सत्य को परिभाषित करता है, वही विज्ञान होता हैं। विज्ञान का आधार होता है सच्चा सो मेरा न कि मेरा जो सच्चा। वास्तव में जो सत्य है उसको स्वीकारने में किसको आपत्ति हो सकती है। परेशानी तो तब होती है जब विज्ञान के नाम पर आंशिक तथ्यों पर आधारित अधूरे सत्य को पूर्ण बतलाने हेतु मायावी आंकड़े, झूठे, भ्रामक विज्ञापनों एवं संख्या बल का सहयोग लिया जाता है तथा वास्तविकता एवं सनातन सत्य को नकारा जाता है। अपनी पद्धतियों को वैज्ञानिक तथा अन्य पद्धतियों को अवैज्ञानिक बतलाने का दुष्प्रचार किया जाता है। हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। विज्ञान के मूल मापदण्ड गौण होने लगते हैं। किसी भी तथ्य को वैज्ञानिक मानने के लिये अंतिम परिणामों की एकरूपता भी आवश्यक होती है, भले ही वह प्रयोग किसी के द्वारा कहीं पर भी क्यों न किया गया हो? अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं, परन्तु अल्प ज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान भी होता है। अज्ञान से अविश्वास और भ्रान्ति पैदा होती है।
प्रायः अधिकांश आधुनिक चिकित्सकों का अपनी खोजों की वैज्ञानिकता सिद्ध करने का दावा लगभग प्रायः ऐसा ही लगता है। विशेषकर स्वास्थ्य के नाम पर आयोजित होने वाले अधिवेशनों में प्रस्तुतिकरण का ऐसा ही आधार होता है। वैज्ञानिक शोध का आधार होना चाहिये अंतिम परिणामों का स्पष्ट प्रकटीकरण। अर्थात लाभ और हानि का सही विश्लेषण। प्रत्येक चिकित्सक अपनी उपलब्धियों को तो बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं, प्रचारित करते हैं, परन्तु जहां अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते अथवा जो दुष्प्रभाव होते हैं, उनकी उपेक्षा करते हैं, छिपाते हैं, प्रकट नहीं करते हैं तथा उनके कारणों का विश्लेषण तक नहीं करते हैं। स्वास्थ्य विज्ञान की शोध के आधार में एकरूपता होनी चाहिए अर्थात् जिन रोगियों अथवा प्राणियों पर दवाओं अथवा उपचार के जो प्रयोग किये जाते हैं, उसका खान-पान, रहन-सहन, स्वभाव, मानसिकता, आचार-विचार, सोच, चिन्तन-मनन की प्रक्रिया, पारिवारिक समस्याएं तथा शरीर में अप्रत्यक्ष एवं सहयोगी रोगों की एकरूपता भी होनी चाहिए, क्योंकि यही कारण रोग से संबंधित होते हैं। ऐसी परिस्थितियां सभी रोगियों में एक सी होना कभी भी सम्भव नहीं होती। अतः उसके अभाव में प्रस्तुत परिणाम कैसे वैज्ञानिक और सत्य पर आधारित समझे जा सकते हैं, चिन्तन का प्रश्न हैं?
आधुनिक दवाओं के प्रभावों का बढ़ा-चढ़ा कर बहुत भ्रामक विज्ञापन किया जाता है, परंतु उससे पड़ने वाले दुष्प्रभावों की अनदेखी की जाती है। ऐसी सोच और चिंतन अपने आपको ही मौलिक एवं वैज्ञानिक तथा अन्य चिकित्सा पद्धतियों को अवैज्ञानिक अथवा वैकल्पिक बतलाने का दावा कैसे कर सकती है?
(10) अध्यात्म से शून्य स्वास्थ्य विज्ञान अपूर्ण
जिस चिकित्सा में शारीरिक स्वास्थ्य ही प्रमुख हो, मन, भावों अथवा आत्मा के विकार जो अधिक खतरनाक, हानिकारक होते हैं, गौण अथवा उपेक्षित होते हों या बढ़ते हों, ऐसी चिकित्सा पद्धतियों को ही वैज्ञानिक समझने वाले विज्ञान की बातें भले ही करते हों, विज्ञान के मूल सिद्धान्तों से अपरिचित लगते हैं। विज्ञान शब्द का अवमूल्यन करते हैं। सनातन सत्य पर आधारित प्राकृतिक सिद्धान्तों को नकारते हैं।
(11) स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ है, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं-मौलिक चिकित्सा कौनसी?
स्वावलम्बी या परावलम्बी। सहज अथवा दुर्लभ। सरल अथवा कठिन, सस्ती अथवा महंगी। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित प्राकृतिक या नित्य बदलते मापदण्डों वाली अप्राकृतिक। अहिंसक अथवा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा, निर्दयता, क्रूरता को बढ़ावा देने वाली। दुष्प्रभावों से रहित अथवा दुष्प्रभावों वाली। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने वाली या कम करने वाली। रोग का स्थायी उपचार करने वाली अथवा राहत पहुंचाने वाली। सारे शरीर को एक इकाई मानकर उपचार करने वाली अथवा शरीर का टुकड़ों-टुकड़ों के सिद्धान्त पर उपचार करने वाली।
उपर्युक्त मापदण्डों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि कौनसी चिकित्सा मौलिक हैं और कौनसी वैकल्पिक? मौलिकता का मापदण्ड भ्रामक विज्ञापन अथवा संख्याबल नहीं होता। अतः हमें स्वीकारना होगा कि स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ भी मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ हैं, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां नहीं हैं?
किसी बात को बिना सोचे समझे स्वीकार करना यदि मूर्खता है तो अनुभूत सत्य को बिना सम्यक् चिन्तन एवं तर्क की कसौटी पर कसे, प्रचार-प्रसार के अभाव में पूर्वग्रसित गलत धारणाओं के कारण अस्वीकार करने वालों को कैसे बुद्धिमान कहा जा सकता है?
(12) चिकित्सा हेतु हिंसा अनुचित-
अधिकांश चिकित्सा पद्धतियों का उद्धेष्य मानव के शरीर को स्वस्थ रखने तक ही सीमित होता है। अतः उपचार करते समय हिंसा को बुरा नहीं मानते। विशेष रूप से आधुनिक चिकित्सा पद्धति तो हिंसा से अधूरी हो ही नहीं सकती। स्वयं को तो एक पिन की चुभन भी सहन नहीं होती। वीडियों, कम्प्यूटर और मोबाइल जैसे वैकल्पिक साधनों की उपलब्धता होने के बावजूद शारीरिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए मूक, असहाय, बेकसूर जीवों का अनावष्यक विच्छेदन अथवा हिंसा करना, निर्मित दवाइयों के परीक्षणों हेतु जीव-जन्तुओं पर बिना रोक-टोक क्रूरतम हृदय विदारक यातनाएँ देना मानव की स्वार्थी एवं अहं मनोवृति का प्रतीक है। भोजन में माँसाहार, अण्डों और मछलियों को पौष्टिक बतला कर प्रोत्साहन देना पाश्विकता का द्योतक है। किसी प्राणी को दुःख दिए बिना हिंसा, क्रूरता, निर्दयता हो नहीं सकती। जो प्राण हम दे नहीं सकते, उसको लेने का हमें क्या अधिकार? दुःख देने से दुःख ही मिलेगा। प्रकृति के न्याय में देर हो सकती है,अँधेर नहीं। जो हम नहीं बना सकते, उसको स्वार्थवश नष्ट करना बुद्धिमता नहीं। अतः चिकित्सा के नाम पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंसा करना, कराना और करने वालों की अनुमोदना करना अनुचित है। दवाओं के माध्यम से शरीर में जाने वाली उन बेजुबान प्राणियों की बद-दुवाएँ शरीर को दुष्प्रभावों से ग्रसित करें, तो आष्चर्य नहीं। अतः चिकित्सा की प्राथमिकता होती है- अहिंसक उपचार। जिसके लिए हिंसा और अहिंसा के भेद को समझ अनावष्यक हिंसा से यथासम्भव बचना आवष्यक होता है। चिकित्सा पद्धतियाँ जितनी अधिक अहिंसा के सिद्धान्तों पर आधारित होती है वे शरीर के साथ-साथ मन और आत्मा के विकारों को भी दूर करने में सक्षम होने के कारण शीघ्र,स्थायी एवं अत्यधिक प्रभावशाली होती है।
परन्तु आज चिकित्सा में प्रायः हिंसा पूर्णतया गौण होती है। विज्ञापन और भोगवादी मायावी युग में स्वार्थी मनोवृति के परिणामस्वरूप तथा जनसाधारण की असजगता, उदासीनता एवं सम्यक् चिन्तन के अभाव के कारण आज चारों तरफ से मानव पर अन्याय, अत्याचार, विष्वासघात जैसी घटनाएँ हो रही है। चिकित्सा का पावन क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं है। चिकित्सा के नाम पर आज हिंसा को प्रोत्साहन,अकरणीय, अनैतिक आचरण को मान्यता, अभक्ष्य अथवा अखाद्य पदार्थो का सेवन उपयोगी, आवश्यक बतलाने का खुल्लम-खुला प्रचार हो रहा है।
(13) सेवा हेतु अहिंसक उपचारों को प्राथमिकता आवश्यक
प्रभावशाली अहिंसक उपचारों का विकल्प होते हुए भी जब अहिंसा प्रेमी चिकित्सा के क्षेत्र में होने वाली हिंसा का अज्ञानवश समर्थन करते हैं तो उनका आचरण अहिंसा से ज्यादा सेवा को महत्व देने का होता है। सेवा कर्म निर्जरा का सशक्त माध्यम होता है और हिंसा कर्म बंधन का प्रमुख कारण। जो चिकित्सा पद्धतियाँ कर्म बंधन में सहायक होती है,भगवान महावीर ने भी, उनके निषेध का कथन किया । अतः सेवा हेतु उपयोग में लिये जाने वाले साधनों, उपकरणों का अहिंसक होना अनिवार्य है। अपवित्र एवं हिंसक साधनों पर आधारित अमूल्य मानव सेवा जैसा अच्छा कार्य कपड़े खोल आभूषण पहिनने वालों की तरह अविवेकपूर्ण होता है।
परन्तु आज अहिंसा प्रेमियों द्वारा भी चिकित्सा में अहिंसा न केवल उपेक्षित एवं गौण होती जा रही है, अपितु ऐसी हिंसा को आवश्यक बतलाने का प्रयास भी किया जा रहा है। क्या ऐसा प्रयास परोक्ष रूप से बूचड़खानों का सहयोग करना एवं पशु क्रूरता को प्रोत्साहन देना नहीं है? अतः उपचार हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा करना/करवाना अथवा हिंसा करवाने वालों को प्रोत्साहन देना,कर्जा चुकाने के लिये ऊँचें ब्याज पर कर्जा लेने के समान नासमझी है।
(14) वेबसाईट बनाने का उद्देश्य
आज हमारी समस्त सोच का आधार जो प्रत्यक्ष है, जो तात्कालिक है, उसके आगे-पीछे प्रायः नहीं जाता। स्वस्थ रहने के लिए हमें रोग के मूल कारणों को दूर करना होगा। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण होने से बचाना होगा। रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए सृष्टि के नियमों का पालन कर संयमित जीवन जीना होगा। जहां संयम है, सजगता है, समता है, स्वावलम्बन है, सम्यक् श्रम है, साधना है वहां विकारों का अभाव होता है। यही अच्छे स्वास्थ्य का द्योतक होता है। दुष्प्रभावों की चिन्ता छोड़ प्रभावशाली वैकल्पिक उपलब्ध साधनों की अनदेखी करने से, जीवन भर हम अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं ले पाते। अपने स्वजनों और मित्रों को साधारण से रोग की अवस्था में भी अपनी मानसिकता के कारण अस्पताल ले जाना अपना कर्तव्य समझते हैं और जो ऐसा नहीं करते उन्हें हम मूर्ख, कंजूस, लापरवाह कहते हुए नहीं चूकते। इसके विपरीत रोग होने के कारणों की तरफ पूरा ध्यान नहीं देते।
उपयुक्त सारी चर्चा वर्तमान में हमारी धारणाओं और परिस्थितियों के अनुकूल हो अथवा नहीं, ये सारी बातें हमें अच्छी लगे अथवा नहीं, प्रकृति के कानून व्यक्तिगत अनुकूलताओं के आधार पर नहीं बदलते। जंगल के जानवर आज भी बिना तर्क प्राकृतिक नियमों का पालन करते हैं। अतः उनको अपना जीवन चलाने के लिए प्रायः डॉक्टरों ओर दवाइयों की आवष्यकता नहीं होती, परन्तु जो पशु मानव के सम्पर्क में आते हैं, उनके सम्पर्क में रहकर अपना नियमित आचरण बदल प्रकृति के विपरीत आचरण करते हैं, वे ही मानव की भाँति रोगग्रस्त होते हैं। अतः प्रकृति से सहयोग और तालमेल रख जीवन व्यापन करना ही स्वास्थ्य की कूंजी है। जितना-जितना प्रकृति के साथ तालमेल और सन्तुलन होगा, प्राणि मात्र के प्रति सद्भाव, मैत्री, करूणा, सहयोग का आचरण होगा, उतना-उतना हम स्वास्थ्य के समीप होंगे। हमारा स्वास्थ्य हमारे हाथ में है तो हमारे रोग भी हमारे हाथ में हैं। हम जैसा चाहें,वैसा आचरण करें, हमें स्वयं को ही फैसला करना है कि-”हम रोगी बने अथवा स्वस्थ।”
गत25वर्षों से इस क्षेत्र में कार्य करने से मैंने अपने असाध्य समझे जाने वाले अनेक रोगों का स्वयं बहुत ही कम समय में उपचार किया। अनेक रोगी, मात्र हमारे मार्गदर्षन से तुरन्त ठीक हुए। प्रत्येक रोगी को शरीर की क्षमताओं एवं प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित उपचार को समझाना संभव नहीं। अतः चाहते हुये भी लाखों रोगी ऐसे उपचारों से वंचित रहते हैं। उपचार करते समय परावलंबन चाहे दवा का हो या डॉक्टर का, उपकरणों का हो अथवा विविध यांत्रिक परीक्षणों का, परावलम्बन तो पराधीन ही बनाता है। अतः जब तक दूसरा कोई प्रभावशाली विकल्प हो, पराधीनता से यथा संभव बचना ही श्रेयस्कर होता है। Website मैं वर्णित उन्हीं विषयों का संकलन है जिनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष चिंतन एवं अनुभव करने का मुझे सुखद संयोग मिला।
प्राणीमात्र को प्रभावशाली, स्वावलंबी, निर्दोष, अहिंसात्मक, मौलिक, प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित स्वास्थ्य संबंधी जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देष्य से हमारे न्यास द्वारा जनहितार्थ यह Website उपलब्ध करायी जा रही है। स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियों की प्रभावशालीता के प्रति सजगता जागृत करने के उद्देष्य से इस Website में हमारे न्यास द्वारा प्रकाशित आरोग्य आपका, स्वस्थ रहें या रोगी फैसला आपका जैसी सभी पुस्तकें, स्वास्थ्य सम्बन्धी आलेख, चिन्तनीय प्रश्न, चिकित्सा पद्धतियों की सामान्य जानकारी एवं उपचार करने हेतु मार्ग दर्शन का विस्तृत विवेचन इस Website में है, जिसे देख कर व्यक्ति रोगों का आत्म विश्वाश के साथ स्वयं उपचार कर सकता है।
इस Website में व्यक्ति के अन्दर छिपी अनन्त क्षमताओं से स्वयं को परिचित कराने का प्रयास किया गया है। इसमें ऐसी पद्धतियों का सार रूप में विवेचन किया गया है, जो व्यक्ति स्वयं कर सकता है। उन्हीं चिकित्सा पद्धतियों को प्राथमिकता दी गयी है। उपचार में उन सभी बातों से यथासंभव बचने का प्रयास किया गया है, जिसमें थोड़ी सी गलती अथवा गलत प्रयोग से किसी भी प्रकार की हानि हो सकती हैं। प्रत्येक उपचार करते समय शरीर और मस्तिष्क का सूक्ष्मतम समन्वय मुख्य होता है। उपचार उतना ही करना होता है, जितना शरीर व मस्तिष्क स्वीकार करता है। प्रत्येक व्यक्ति के उपचार का समय अलग-अलग होता है, क्योंकि उनकी क्षमताएँ अलग-अलग होती हैं। गलत अथवा आवश्यकता से अधिक उपचार होते ही सिर में भारीपन, बैचेनी अथवा मन को अच्छा नहीं लगता है। जैसे जितनी प्यास हो उतना ही पानी और जितनी भूख हो उतना ही भोजन अच्छा लगता है। जिस प्रकार अत्यधिक प्यास होने पर भी पानी के स्थान पर गलती से भी केरोसिन पीने पर तुरन्त पता लग जाता है, ठीक उसी प्रकार गलत उपचार होने पर तुरन्त मस्तिष्क में प्रतिक्रिया होती है।
‘नीम हकीम खतरे वाली’ बात इन उपचारों पर प्रायः लागू नहीं होती। जहाँ पर तनिक भी संदेह है अथवा हानि होने की संभावना है, उसको यथा संभव स्थान नहीं दिया गया है। कदाचित् कहीं पर दिया गया है तो सजगता हेतु आवश्यक निर्देष भी दिया गया है। अतः हानि होने की संभावना लगभग नगण्य होती है। Website को देखने मात्र तक ही अपने आपको सीमित न रखें, अपितु निःसंकोच जो-जो बातें आपको तर्क संगत लगे उनको आवष्यकतानुसार स्वविवेक से प्रयोग करना प्रारम्भ करें। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमताओं के अनुसार रोगों की स्थिति में अलग-अलग अनुभूति एवं लाभ होता है। Website तो आपके लिए एक दीपक के समान है, जो आपके रोगों की समस्याओं का समाधान करने का प्रकाश देती है। अधिकांश प्रयोग एवं उपचार स्वयं द्वारा स्वयं को ही करने होते हैं। अतः रोगी को Website को बार-बार देखना और उस पर खुले दिमाग से चिन्तन करना आवष्यक है।
अंत में मैं आभार प्रकट करता हूँ उन सद्गुरुओं का जिन्होंने इस अमूल्य ज्ञान का मुझे प्रशिक्षण दिया एवं समय-समय पर मेरा मार्गदर्शन कर मनोबल बढ़ाया। मैं आभारी हूँ उन सभी रोगियों का जिन्होंने इन चिकित्सा पद्धतियों द्वारा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर जनमानस में इनके प्रति सजगता जागृत की। साथ ही इस क्षेत्र में कार्यरत सभी चिकित्सकों, शोधकर्ताओं, प्रचारकों, लेखकों का जो प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से चिकित्सा के क्षेत्र में होने वाली हिंसाओं का प्रभावशाली विकल्प जनमानस को देने में अपने समय, श्रम एवं साधनों का सदुपयोग कर रहे हैं। मैं क्षमाप्रार्थी हूँ इंटरनेट एवं अन्य माध्यमों से उपलब्ध चन्द चित्रों का जनहितार्थ Website में उपयोग करने हेतु।
सच्चा और अच्छा जो न केवल मेरा अपितु सभी का। सबका मंगल हो, सबका कल्याण हो, सभी शांत, प्रसन्न, स्वस्थ एवं रोग मुक्त हों, इसी मंगल भावना के साथ।
”सर्वे भवन्तु सुखिनः; सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पष्यन्तु, मा कष्चिद् दुःखमाप्नुयात्।।”